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लोकसभा चुनाव की तैयारी में मोदी सरकार, जानें कहां है जनलोकपाल, कैसा है काले धन पर हाल?

भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) अपने 'संपर्क से समर्थन' अभियान के तहत लोगों से संपर्क कर अपने कार्यों का ब्यौरा दे रही है। अब जब वह खुद ही रिपोर्ट कार्ड दिखा रही है तो सोचा कि 2014 में जिन मुद्दों को लेकर बीजेपी सत्ता में आई थी आखिर उन पर क्या स्थिति है।

Updated on: 03 Sep 2018, 05:00 PM

नई दिल्ली:

देश के 72वें स्वतंत्रता दिवस पर देश ने प्रधानमंत्री को लाल किले से अपने कार्यकाल का आखिरी भाषण देते सुना। इस दौरान हमेशा की तरह हम सभी को उनके कार्यकाल के दौरान किए गए कार्यों का उल्लेख सुनने को मिला, कई राजनीतिक विशेषज्ञों ने तो इसे 2019 के आम चुनावों का आगाज तक बता दिया। खैर! आगाज तो हो चुका है, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) अपने 'संपर्क से समर्थन' अभियान के तहत लोगों से संपर्क कर अपने कार्यों का ब्यौरा दे रही है।

जब बीजेपी खुद ही रिपोर्ट कार्ड दिखा रही है तो जानें 2014 में जिन मुद्दों को लेकर बीजेपी सत्ता में आई थी उन पर अभी तक कितन अमल हो पाया।

2014 में मोदी सरकार को मिली ऐतिहासिक जीत

साल 2014 में राजनीतिक गलियारों में दो एतिहासिक कार्य हुए। पहला करीब 3 दशक बाद कोई पार्टी इतने बड़े बहुमत के साथ सत्ता में आई, वहीं दिल्ली में अन्ना हजारे के आंदोलन से जन्मी आम आदमी पार्टी के 414 उम्मीदवारों की लोकसभा चुनाव में जमानत जब्त हो गई। हालांकि आप पार्टी ने 2015 में बेहतर प्रदर्शन किया और दिल्ली में 70 में से 67 सीटें जीत कर सरकार बना ली।

इन दोनों पार्टियों की ऐतिहासिक जीत के कई कारण हो सकते पर एक कारण है जिसने दोनों ही पार्टियों को भारी वोट दिलाया और देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस को उस हालत में ला छोड़ा कि लोकसभा में विपक्षी पार्टी का दर्जा नहीं मिला और दिल्ली विधानसभा में खाता भी नहीं खुला। यह मुद्दा था देश में दीमक की तरह बढ़ रहे भ्रष्टाचार और उससे पैदा होने वाले काले धन का।

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अगर आपको मोदी सरकार का 2014 का चुनावी अभियान याद हो तो उस समय एक स्लोगन काफी मशहूर हुआ था, 'अबकी बार काले धन पर वार'।

जनलोकपाल बिल पर आसाधरण चुप्पी

बता दें कि कालेधन पर लगाम लगाने और भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ सख्त कदम उठाने की मांग को लेकर 2012 में समाज सेवी अन्ना हजारे ने जनलोकपाल बिल की मांग करते हुए आंदोलन किया था। हालांकि उस वक्त जनलोकपाल बिल का समर्थन करने वाली बीजेपी और इसी मांग की बदौलत दिल्ली की सत्ता में कांग्रेस का सूपड़ा साफ करने वाली आम आदमी पार्टी ने अब तक कुछ भी नहीं किया है।

जहां केंद्र की मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट के बार-बार कहने के बावजूद अब तक वो हलफनामा दाखिल नहीं कर पाई है जिसमें उसे लोकपाल नियुक्ति और उसमें लगने वाली समय सीमा की विस्तार से जानकारी देनी है।

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रिपोर्टों के अनुसार मोदी सरकार ने आने के बाद भ्रष्टाचार निरोधी जांच एजेंसियों (सीबीआई, सेंट्रल विजिलेंस कमीशन, विसल ब्लोअर एक्ट और भ्रष्टाचार रोकथाम अधिनियम) को मजबूत करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया है।

वहीं दिल्ली 2013 में जनलोकपाल के मुद्दे पर 49 दिन की सरकार में इस्तीफा देने वाले सीएम अरविंद केजरीवाल भी इसे लेकर कुछ खास नहीं कर पाए हैं। हालांकि हर बार की तरह इसकी नाकामी का ठीकरा भी उन्होंने एलजी और केंद्र सरकार पर फोड़ा है।

पार्टियों को मिलने वाला चुनावी चंदा

बहुत ही दुर्भाग्य की बात है कि आजादी के इतने सालों के बावजूद हमारे देश में राजनीतिक दलों को मिलने वाले चुनावी चंदे को लेकर कोई साफ सुथरी व्‍यवस्‍था नहीं बन पाई है। इतना ही नहीं पार्टियों को मिलने वाले चंदे से जुड़ी जानकारी को लेने को लेकर भी कोई ठोस नियम नहीं है।

साल 2017 से पहले कोई भी राजनीतिक पार्टी 20 हजार रु तक की रकम को ऐसे चंदे के रूप में स्वीकार कर सकती थी जिसका स्राेत बताने के लिए वह बाध्य नहीं है। इस नियम के अनुसार कोई भी राजनीतिक पार्टी एक व्यक्ति से 20 हजार रुपए तक का गुप्त दान ले सकती थीं। इस तरह के चंदे के बारे में चुनाव आयोग को जानकारी देने की भी जरूरत नहीं है। हालांकि 2017-18 के बजट के दौरान मोदी सरकार ने इस लिमिट को घटाकर 2000 रु कर दिया है।

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बता दें कि चुनाव आयोग को दी गई चंदे की जानकारी को कोई भी व्यक्ति RTI एक्ट 2005 के तहत प्राप्त कर सकता है। लोकतांत्रिक सुधार संघ ( Association of Democratic reforms) की एक रिपोर्ट के अनुसार राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चुनावी चंदे का करीब दो-तिहाई हिस्सा गुप्त दान के जरिए आता है।

रिपोर्ट के अनुसार जहां कांग्रेस पार्टी को मिलने वाले चुनावी चंदे का 83 फीसदी हिस्सा गुप्त दान की श्रेणी में आता है वहीं भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को मिलने वाले चंदे का यह 65 फीसदी है। चूंकि पार्टियां ऐसे चंदों की जानकारी सार्वजनिक करने को बाध्य नहीं है।

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राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे का RTI के तहत न आना

चुनावी चंदे के अलावा एक और बड़ी समस्या है जिसको लेकर राजनीतिक पार्टियां कोई भी काम नहीं कर रही है वो है उनका सूचना के अधिकार के तहत जवाबदेह होने का, केंद्रीय सूचना आयोग ने राजनीतिक पार्टियों पर कठोर टिप्पणी करते हुए कहा था कि चुनावी दल सार्वजनिक प्राधिकरण के दायरे में आते हैं और जो भी संस्था इसके दायरे में आती है उसका RTI के तहत जवाबदेह होना लाज़मी है, इसलिए सभी राजनीतिक पार्टियों को सूचना के अधिकार के तहत जवाबदेही तय की जाए।

हालांकि सभी पार्टियों ने इस पर एकजुटता दिखाते हुए CIC के इस नियम को एक स्वर में खारिज कर खुद को RTI से बाहर कर दिया।

बॉन्ड के जरिए राजनीतिक दलों को दिया जाने वाला पैसा

केंद्र की मोदी सरकार ने राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे के तरीकों में संशोधन करते हुए दानकर्ता को चुनावी बॉन्ड का विकल्प दिया है। इस बॉन्ड को कुछ सुनिश्चित बैंकों के जरिए कोई भी खरीद सकता है। बैंक इन बॉन्डस के लिए धारक का नाम नहीं लेते हैं और इन्हें किसी भी राजनीतिक पार्टियों को दिया जा सकता है।

ऐसे में अगर कोई व्यक्ति करोड़ों का बॉन्ड खरीद कर किसी राजनीतिक दल को दान कर दे तो वह व्यक्ति न सिर्फ चुनाव आयोग बल्कि आम नागरिक के लिए अज्ञात ही रहेगा। इससे आज के समय में जो भी थोड़ी-बहुत चुनावी पारदर्शिता बची है उसके खत्म होने के भी आसार साफ नजर आते हैं।

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फॉरन कॉन्ट्रिब्यूशन (रेग्युलेशन) ऐक्ट 2010 (FCRA Act) में संशोधन

साल 2018 के बजट सत्र के दूसरे सेशन के दौरान लोकसभा में बिना चर्चा के फॉरन कॉन्ट्रिब्यूशन (रेग्युलेशन) ऐक्ट 2010 (FCRA) के संशोधित बिल को पास कर दिया गया। इस संशोधन के तहत राजनीतिक पार्टियों को साल 1976 से अब तक मिले विदेशी चंदे का ब्यौरा देने की जरूरत नहीं होगी। इतना ही नहीं इस संशोधन के बाद अब राजनीतिक दल बिना किसी रोक-टोक के विदेशी चंदा ले सकेंगे और उन्हें उसका ब्यौरा देने की भी जरूरत नहीं है।

इस संशोधन के बाद बीजेपी और कांग्रेस को 2014 के दिल्ली हाई कोर्ट के उस फैसले से भी राहत मिल गई, जिसमें दोनों पार्टियों को FCRA का उल्लंघन करने का दोषी करार दिया गया था। आपको बता दें कि FCRA को साल 1976 में पास किया गया था, जिसमें कहा गया था कि ऐसी भारतीय या विदेशी कंपनियां जो विदेश में रजिस्टर्ड हैं, राजनीतिक पार्टियों को चंदा नहीं दे सकतीं। हालांकि इस बिल को बाद में FCRA, 2010 के जरिए निरस्त कर दिया गया था।

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बता दें कि सामाजिक संस्थाओं को यदि विदेशों से कोई आर्थिक मदद लेनी होती है तो FCRA के तहत मंजूरी लेने के लिए कड़े नियम हैं और हासिल की गई आर्थिक मदद पर लगातार निगाह भी रखी जाती है कि वह पैसा कहां खर्च हो रहा है। यह भी देखा जाता है कि वह आर्थिक मदद किसी ऐसे व्यक्ति या संगठन को तो नहीं हस्तांतरित की गई जिसे FCRA मंजूरी हासिल नहीं है।

विदेशी कंपनियों की परिभाषा बदल देना

1976 में FCRA पास हुआ, जिसमें बताया गया था कि कौन सी कंपनियों को भारतीय या विदेशी माना जाए। इसे 2010 में नए नियमों से रिप्लेस किया गया। बीजेपी सरकार के 2016 के फाइनेंस बिल के मुताबिक, अगर किसी कंपनी में विदेशी हिस्सेदारी 50% से कम है तो उसे विदेशी फर्म नहीं माना जाए। हालांकि, इस नियम को सितंबर 2010 से लागू किया गया और 1976 से 2010 तक पार्टियों को मिले चंदे की स्क्रूटनी शुरू हुई थी।

मोदी सरकार कितनी पास कितनी फेल

2014 में केंद्र में चुनकर आई मोदी सरकार ने 27 मई 2014 को अपनी पहली कैबिनेट मीटिंग में कालेधन की जांच के लिए एसआईटी के गठन की घोषणा की तो लगा था कि यह सरकार कालाधन के मुद्दे पर गंभीर है। यही नहीं नोटबंदी को भी सरकार ने कालाधन के खिलाफ करारी चोट बताया था। साथ ही कालाधन को सफेद करने की स्कीम भी निकाली थी ताकि गरीब जनता का भला हो। लेकिन सरकार की इन सब कवायदों के बावजूद परिणाम कुछ भी नहीं निकला।

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सरकार के इन प्रयासों के विफल होने के पीछे के एक ही कारण हो सकता है, या तो ये कदम सही नीयत से नहीं उठाये गये या फिर इन्हें लागू करने में बड़ी खामियां रहीं। तभी तो नोटबंदी के बाद रिजर्व बैंक के पास वापस 99.3% पैसे पहुंच गये और कालाधन रखने वाले किसी बड़े नाम पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। इतना ही नहीं बैंकों की मिली भगत में कई बड़े वित्तीय घोटाले सामने आए जिन्होंने न सिर्फ घोटाला किया बल्कि घोटाला कर विदेश भागने में भी सफल रहे।