फैज अहमद फैज नहीं रहे, न जिसपर लिखी गई वह रहा, लेकिन कविता अभी जिंदा है
फैज अहमद फैज ने यह कविता लिखी किसी के लिए थी, लिखी किसी वक्त में गई थी, लेकिन आज सालों बाद इस पर चर्चा और विमर्श किया जा रहा है.
नई दिल्ली:
फैज अहमद फैज (Faiz Ahmed Faiz) की एक कविता है, लाजिम है कि हम भी देखेंगे, जब अर्ज-ए-खुदा के काबे से. सब बुत उठाए जाएंगे, हम अहल-ए-वफा मरदूद-ए-हरम, मसनद पे बिठाए जाएंगे. सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख्त गिराए जाएंगे. बस नाम रहेगा अल्लाह का. हम देखेंगे. फैज अहमद फैज ने यह कविता लिखी किसी के लिए थी, लिखी किसी वक्त में गई थी, लेकिन आज सालों बाद इस पर चर्चा और विमर्श किया जा रहा है. इससे पता चलता है कि साहित्य की एक लाइन न जाने कितने सालों तक याद की जाती है और अक्सर अपना सिर भी उठाती रहती है. फैज अहमद फैज की कविता की अंतिम पंक्ति ने विवाद खड़ा कर दिया है. अब भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर (IIT-K) ने एक समिति गठित की है, जो यह तय करेगी कि क्या फैज अहमद फैज की कविता 'हम देखेंगे लाजिम है कि हम भी देखेंगे' हिंदू विरोधी है. बताया जा रहा है कि फैकल्टी सदस्यों की शिकायत पर यह समिति गठित की गई है. फैकल्टी के सदस्यों ने कहा था कि नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान छात्रों ने यह कथित तौर पर 'हिंदू विरोधी गीत' गाया था.
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गौरतलब है कि आईआईटी-के के छात्रों ने जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों के समर्थन में 17 दिसंबर को परिसर में शांतिमार्च निकाला था और मार्च के दौरान उन्होंने फैज की यह कविता गाई थी. आईआईटी के उपनिदेशक मनिंद्र अग्रवाल के अनुसार, वीडियो में छात्रों को फैज की कविता गाते हुए देखा जा रहा है, जिसे हिंदू विरोधी भी माना जा सकता है. समिति इसकी जांच करेगी कि क्या छात्रों ने शहर में जुलूस के दिन निषेधाज्ञा का उल्लंघन किया, क्या उन्होंने सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक सामग्री पोस्ट की और क्या फैज की कविता हिंदू विरोधी है.
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फैज अहमद फैज की यह कविता हिन्दू विरोधी है कि नहीं, इसकी तो जांच की जा रही है. लेकिन हम आपको बता दें कि फैज अहमद फैज कम्यूनिस्ट थे और वे न तो हिंदू को मानते थे और न ही मुसलमान को. हालांकि तथ्य यह भी है कि फैज की कविताओं और शायरी में गैर मुस्लिम रंग नहीं मिलते हैं. फैज पंजाबी के विख्यात और प्रख्यात शायर थे जिनको अपनी क्रांतिकारी रचनाओं में रसिक भाव इंकलाबी और रूमानी के मेल की वजह से जाना जाता है. अपनी बुलंद आवाज के कारण की उन्हें सालों साल जेल में रहना पड़ा. उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए भी मनोनीत किया गया था. जेल में रहने के दौरान ही उन्होंने जिन्दान नामा लिखी थी, जिसे काफी पसंद किया जाता है.
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अब हम आपको बताते हैं कि फैज की जिस कविता को लेकर विवाद खड़ा हुआ है, उसे फैज ने सैन्य तानाशाह जिया उल हक के खिलाफ 1979 में लिखा था. यह मार्शल लॉ के खिलाफ थी. फैज अपने क्रांतिकारी विचारों के कारण जाने जाते थे और इसी कारण वे कई सालों तक जेल में रहे. हालांकि कविता और शायरी की एक लाइन पर विवाद खड़ा करना और उसके संदर्भ और प्रसंग को न जानना भी अपने आप में ठीक नहीं है. जो कि आज किया जा रहा है. 1979 में कविता लिखने वाले पाकिस्तान शायर फैज अहमद फैज साल 1984 में चल बसे. इसके दो साल बाद इकबाल बानों ने सैनिक शासन के खिलाफ एक सभा में ये गीत गाया था. इसके बाद इसके इंकलाब का नगमा मान लिया गया. लेकिन मजेदार बात यह है कि जिन फैज ने इस कविता को लिखा न तो वे रहे, जिन जिया उल हक पर यह कविता लिखी गई न तो वे रहे और जिन इकबाल बानों ने इसे अपनी आबाज दी वे भी चल बसीं, लेकिन ये कविता अभी जिंदा है और आने वाले कई सालों तक जिंदा रहेगी. जब भी जहां कहीं भी एशिया के अलग-अलग हिस्सों में जब भी हुकूमत के खिलाफ कोई आंदोलन चलता है, तब इस गीत को याद किया जाता है. इसे गाने वाले निकल आते हैं. हालांकि अब यह देखना भी दिलचस्प होगा कि जो जांच आईआईटी कानपुर की टीम करेगी, उसमें निकल कर सामने आखिर क्या आता है.
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