'इंदिरा गांधी बनाम राजनारायण' मुकदमे के कारण लगी थी इमरजेंसी

राजनारायण उत्तर प्रदेश के वाराणसी के प्रखर समाजवादी नेता थे. उनके इंदिरा गांधी से कई मसलों पर नीतिगत मतभेद थे. इसलिए वे कई बार उनके खिलाफ रायबरेली से चुनाव लड़े और हारे. 1971 में भी उन्हें यहां हार का मुंह देखना पड़ा लेकिन उन्होंने इंदिरा गांधी की इस

राजनारायण उत्तर प्रदेश के वाराणसी के प्रखर समाजवादी नेता थे. उनके इंदिरा गांधी से कई मसलों पर नीतिगत मतभेद थे. इसलिए वे कई बार उनके खिलाफ रायबरेली से चुनाव लड़े और हारे. 1971 में भी उन्हें यहां हार का मुंह देखना पड़ा लेकिन उन्होंने इंदिरा गांधी की इस

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Karm Raj Mishra
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Indira Gandhi

Indira Gandhi( Photo Credit : News Nation)

मार्च 1971 में हुए आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी को जबरदस्त जीत मिली थी. कुल 518 सीटों में से कांग्रेस को दो तिहाई से भी ज्यादा ( 352) सीटें हासिल हुई. इससे पहले कांग्रेस पार्टी के लगातार बंटते रहने से इसकी आंतरिक संरचना कमजोर हो गई थी. ऐसे में पार्टी के पास इंदिरा गांधी पर निर्भर होने के सिवा दूसरा कोई चारा नहीं रह गया था. इस चुनाव में इंदिरा गांधी लोकसभा की अपनी पुरानी सीट यानी उत्तर प्रदेश के रायबरेली से एक लाख से भी ज्यादा वोटों से चुनी गई थीं. लेकिन इस सीट पर उनके प्रतिद्वंदी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के प्रत्याशी राजनारायण ने उनकी इस जीत को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी. यह मुकदमा ‘इंदिरा गांधी बनाम राजनारायण’ के नाम से चर्चित हुआ.

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राजनारायण उत्तर प्रदेश के वाराणसी के प्रखर समाजवादी नेता थे. उनके इंदिरा गांधी से कई मसलों पर नीतिगत मतभेद थे. इसलिए वे कई बार उनके खिलाफ रायबरेली से चुनाव लड़े और हारे. 1971 में भी उन्हें यहां हार का मुंह देखना पड़ा लेकिन उन्होंने इंदिरा गांधी की इस जीत को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी. 1975 में मार्च का महीना था. इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा की कोर्ट में आजाद भारत का सबसे अनोखा मुकदमा चल रहा था. बनारस के रहने वाले धाकड़ सोशलिस्ट नेता राजनारायण बनाम इंदिरा गांधी के मामले में सुनवाई शुरू हो चुकी थी. मामला 1971 के रायबरेली चुनावों से जुड़ा था. राजनारायण का आरोप था कि इंदिरा गांधी ने सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करके लोकसभा चुनाव जीता है वो इंदिरा गांधी का चुनाव निरस्त करने की मांग कर रहे थे. जस्टिस सिन्हा की कोर्ट में दोनों तरफ से दलीलें पेश होने लगीं. दलीलों को सुनने के बाद जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी को जो उस वक्त देश की प्रधानमन्त्री भी थी , अदालत में अपना बयान दर्ज कराने के लिए पेश होने का हुक्म सुनाया.

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18 मार्च 1975, यह भारतीय इतिहास का पहला मौका था जब देश का प्रधानमन्त्री अदालत में पेश होने जा रहा था . मुकदमा ऐसा कि जस्टिस सिन्हा , वादी प्रतिवादी के वकील और अदालत में मौजूद लोगों ने भी सुनवाई को लेकर जमकर तैयारी की थी. सबसे बड़ा सवाल प्रोटोकाल से जुड़ा था. अदालतों में सिर्फ जज के सामने ही खड़े होने की परम्परा रही है लेकिन जब पीएम खुद अदालत में पेश हो रहे हो तो ? राजनारायण की तरफ से जिरह करने वाले मशहूर वकील शान्ति भूषण ने एक पत्रिका को बताया था कि इंदिरा के कोर्ट में प्रवेश करने से पहले जस्टिस सिन्हा ने कहा कि अदालत में लोग तभी खड़े होते हैं जब जज आते हैं, इसलिए इंदिरा गांधी के आने पर किसी को खड़ा नहीं होना चाहिए, लोगों को प्रवेश के लिए पास बांटे गए थे. फिर तकरीबन 10 बजे जब इंदिरा गांधी अदालत में पेश हुई परिसर में शोरगुल बढ़ गया. वहीं अदालत के बाहर जोरदार नारेबाजी शुरू हो गई. कोर्ट में इंदिरा गांधी को लगभग 5 घंटे तक अपने निर्वाचन से जुड़े सवालों के जवाब देने पड़े.

12 जून , 1975 के सुबह के 10 बजे थे. इलाहाबाद हाईकोर्ट का कोर्टरूम नंबर 24 खचाखच भर चुका था. बाहर भी भारी भीड़ खड़ी थी . दुनिया भर की निगाहें अदालत की ओर टिकी हुई थी ऐसा लाजिमी था क्योंकि राजनारायण बनाम इंदिरा गांधी के मुकदमे पर फैसला सुनाया जाना था. जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने जैसे ही कोर्ट में प्रवेश किया लोगो ने उनका खड़े होकर अभिवादन किया. सुनवाई के दौरान ही जस्टिस सिन्हा की बातों से यह स्पष्ट हो गया था कि वो राजनारायण के तर्कों से सहमत हैं. राजनारायण की याचिका में जो 7 मुद्दे इंदिरा गांधी के खिलाफ गिनाए गए थे, उनमें से 5 में तो जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी को राहत दे दी थी. लेकिन 2 मुद्दों पर उन्होंने इंदिरा गांधी को दोषी पाया. 

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जस्टिस सिन्हा ने जो फैसला सुनाया था उसके अनुसार जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत अगले 6 सालों तक इंदिरा गांधी को चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहरा दिया गया. जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने अपने फैसले में माना कि इंदिरा गांधी ने सरकारी मशीनरी और संसाधनों का दुरुपयोग किया इसलिए जनप्रतिनिधित्व कानून के अनुसार उनका सांसद चुना जाना अवैध है. हालांकि अदालत ने कांग्रेस पार्टी को थोड़ी राहत देते हुए 'नई व्यवस्था' बनाने के लिए तीन हफ्तों का वक्त दे दिया. साथ ही उसने इंदिरा गांधी को भ्रष्टाचार के आरोप से भी मुक्त कर दिया था. कांग्रेस पार्टी ने इलाहाबाद हाइकोर्ट के इस फैसले पर खूब माथापच्ची की. लेकिन उस समय पार्टी की जो स्थिति थी उसमें इंदिरा गांधी के अलावा किसी और के प्रधानमंत्री बनने की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी. 

कहा जाता है कि ‘इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया’ का नारा देने वाले कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष डीके बरुआ ने इंदिरा गांधी को सुझाव दिया कि अंतिम फैसला आने तक वे कांग्रेस अध्यक्ष बन जाएं. बरुआ का कहना था कि प्रधानमंत्री वे बन जाएंगे. लेकिन कहते हैं कि जिस समय प्रधानमंत्री आवास पर यह चर्चा चल रही थी उसी समय वहां इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी आ गए. उन्होंने अपनी मां को किनारे ले जाकर सलाह दी कि वे इस्तीफा न दें. उन्होंने इंदिरा गांधी को समझाया कि प्रधानमंत्री के रूप में पार्टी के किसी भी नेता पर भरोसा नहीं किया जा सकता. संजय ने उन्हें कहा कि पिछले 8 सालों में खासी मशक्कत से उन्होंने पार्टी में अपनी जो निष्कंटक स्थिति हासिल की है, उसे वे तुरंत खो देंगी. जानकारों के अनुसार इंदिरा गांधी अपने बेटे के तर्कों से सहमत हो गई. उन्होंने तय किया कि वे इस्तीफा देने के बजाय बीस दिनों की मिली मोहलत का फायदा उठाते हुए इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देंगी. 11 दिन बाद 23 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हुए दरख्वास्त की कि हाईकोर्ट के फैसले पर पूर्णत: रोक लगाई जाए. 

अगले दिन सुप्रीम कोर्ट की ग्रीष्मकालीन अवकाश पीठ के जज जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर ने अपने फैसले में कहा कि वे इस फैसले पर पूर्ण रोक नहीं लगाएंगे. सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें प्रधानमंत्री बने रहने की अनुमति तो दे दी लेकिन कहा कि वे अंतिम फैसला आने तक सांसद के रूप में मतदान नहीं कर सकतीं. कोर्ट ने बतौर सांसद इंदिरा गांधी के वेतन और भत्ते लेने पर भी रोक बरकरार रखी. वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर ने अपनी एक किताब में जिक्र किया था कि इस फ़ैसले के बाद जब उन्होंने.जगजीवन राम से पूछा कि क्या इंदिरा इस्तीफ़ा देंगी तो उनका कहना था नहीं और अगर ऐसा हुआ तो पार्टी में घमासान मच जाएगा. कोर्ट के इस फैसले ने विपक्ष को और आक्रामक कर दिया. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अगले दिन यानी 25 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में जेपी की रैली थी. जेपी ने इंदिरा गांधी को स्वार्थी और महात्मा गांधी के आदर्शों से भटका हुआ बताते हुए उनसे इस्तीफे की मांग की. 

उस रैली में जेपी द्वारा कहा गया रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता का अंश अपने आप में नारा बन गया है. यह नारा था- सिंहासन खाली करो कि जनता आती है. जेपी ने कहा कि अब समय आ गया है कि देश की सेना और पुलिस अपनी ड्यूटी निभाते हुए सरकार से असहयोग करे. उन्होंने कोर्ट के इस फैसले का हवाला देते हुए जवानों से आह्वान किया कि वे सरकार के उन आदेशों की अवहेलना करें जो उनकी आत्मा को कबूल न हों. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि कोर्ट के फैसले के बाद इंदिरा गांधी की स्थिति नाजुक हो गई थी. सुप्रीम कोर्ट ने भले ही उन्हें पद पर बने रहने की इजाजत दे दी थी , लेकिन समूचा विपक्ष सड़कों पर उतर चुका था. आलोचकों के अनुसार इंदिरा गांधी किसी भी तरह सत्ता में बने रहना चाहती थीं और उन्हें अपनी पार्टी में किसी पर भरोसा नहीं था. ऐसे हालात में उन्होंने आपातकाल लागू करने का फैसला किया. इसके लिए उन्होंने जयप्रकाश नारायण के बयान का बहाना लिया.

  • राजनारायण ने इंदिरा की इस जीत को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी थी
  • 6 सालों तक इंदिरा गांधी को चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहरा गया था
  • संजय गांधी की सलाह पर इंदिरा ने लगाया था आपातकाल

Source : News Nation Bureau

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