गज़ल हिन्दी और उर्दू में तो होती ही है लेकिन एक दूसरी भाषा भी है जिसमें गजल लिखी जाती है और वह भाषा है दुष्यन्त कुमार की। दुष्यन्त कुमार ने कभी भी अपनी गज़लों में कठिन शब्दों का प्रयोग करना वाजिब नहीं समझा। वह तो एक आम आदमी की ज़ुबान बनकर उसकी पीड़ा को कलमबद्ध करते थे। वे अपनी भाषा के बारे में कितने ईमानदार थे यह तो उनकी 'साए में धूप' पर लिखी भूमिका से ही पता चल जाता है। उन्होंने स्पष्ट रूप से लिखा है, 'मैं उस भाषा में लिखता हूं जिसे मैं बोलता हूं।'
कहा जाता है कि जब हिन्दी और उर्दू अपने-अपने सिंहासन से उतरकर आम आदमी के पास आती हैं तो दुष्यंत की भाषा बन जाती हैं। उनका गज़ल हिन्दी से कहीं ज्यादा हिन्दुस्तान की गज़लें हैं। 'कहां तो तय था', 'कैसे मंजर', 'खंडहर बचे हुए हैं', 'जो शहतीर है', 'ज़िंदगानी का कोई', 'मकसद', 'मुक्तक', 'आज सड़कों पर लिखे हैं', 'मत कहो, आकाश में', 'धूप के पाँव', 'गुच्छे भर', 'अमलतास', 'सूर्य का स्वागत', 'आवाजों के घेरे','बाढ़ की संभावनाएँ', 'इस नदी की धार में', 'हो गई है पीर पर्वत-सी' जैसी कालजयी कविताओं से दुष्यन्त ने सबके दिल में जगह बनाई।
उस दौर में जब गज़ल इश्क-मोहब्बत के दरम्यान ही घूमा करती थी तब दुष्यन्त कुमार ने अपनी गज़लों से क्रांति की आग को हवा दी। दुष्यन्त ने गज़लों से कभी मुल्क की सूरत बदलने की कोशिश की तो कभी समाजिक गैर-बराबरी पर प्रहार किया। यही साफगोई उनकी गज़लों की ताकत है और अवाम के बीच उनकी लोकप्रियता का कारण भी। दुष्यन्त ने जब भी स्वप्न देखा तो देश को बेहतर करने का देखा। उन्होंने लिखा -
थोड़ी आंच बची रहने दो , थोड़ा धुआं निकलने दो
कल देखोगी कई मुसाफिर इसी बहाने आएंगे
आजादी के बाद देश के हालात जब नहीं बदले, लोगों को बुनायदी सुविधाएं जब मुहैया नहीं हुईं तो उस वक्त नागार्जुन , केदारनाथ अग्रवाल , त्रिलोचन , धूमिल और मुक्तिबोध सभी ने आम आदमी की बेचैनी और छटपटाहट के बारे में लिखा। दुष्यन्त भी कहां पीछे रहने वाले थे, उन्होंने आजाद भारत के गीत गाते लोगों के जब हालात नहीं बदले तो लिखा
कैसे मंजर सामने आने लगे हैं
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
दुष्यंत कभी भी अवसरानुकूल क्रान्ति का परचम नहीं फहराते थे। वह हमेशा, हर क्षण अवाम की आवाज बने रहे।
ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा
इमरजेंसी के दौर में जब बड़े लेखक और कवि सरकार की तारीफ में बिछे जा रहे थे। आकाशवाणी भोपाल का ये सरकारी कर्मचारी सीधे सरकार को निशाने पर रखकर ग़ज़लें कह रहा था।
एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है
आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है
दुष्यंत की गज़लों में अभावभरी, यातनामय जिंदगी का जैसा चित्रण सरल भाषा मिलता है उतना शायद ही किसी और के लेखन में मिलता होगा। निदा फ़ाज़ली उनके बारे में लिखते हैं 'दुष्यन्त की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है। यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मों के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है।'
Source : Sankalp Thakur