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लोकतंत्र की अवधारणा( Photo Credit : File Photo)
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लोकतंत्र की अवधारणा( Photo Credit : File Photo)
‘लोकतंत्र’ स्वयं में एक बृहद अवधारणा है जो प्रत्यक्ष रूप से एक छोर पर मानव से जुड़ी हुई है तो दूसरे छोर पर राष्ट्र से तथा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से विश्व से जुड़ी हुई है, क्योंकि राष्ट्र किसी भौगोलिक सीमा का नाम नहीं है बल्कि वह वहां के नागरिकों के व्यवहार और मर्यादाओं का भी प्रश्न है. किसी भी राष्ट्र की शासन व्यवस्था से न केवल वही राष्ट्र प्रभावित होता है बल्कि विश्व भी प्रभावित होता है. ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो इस विचार की पुष्टि करते हैं. ‘चीन’ का उदाहरण सभी के समक्ष है. लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास न रखने वाले राष्ट्र अपनी ‘विस्तारवादी’ सोच से ‘अतिक्रमण’ और ‘अधिग्रहण’ के पथ पर अग्रसर हो सकते हैं. वहीं लोकतांत्रिक मूल्यों का समर्थन करने वाले राष्ट्र दूसरों के हित-अहित, कल्याण और सम्मान का पूर्ण ध्यान रखते हैं तथा साथ ही यह प्रयास करते हैं कि विश्व में शांति स्थापित रहे.
‘लोकतंत्र’ शब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ है – ‘लोक का तंत्र’ या ‘लोगों का शासन’. लोकतंत्र शब्द के लिए ‘प्रजातंत्र’ शब्द भी व्यवहार में देखने को मिलता है. वस्तुत: यह एक ऐसी शासन व्यवस्था है जहां लोक/जनता अपने मतानुसार या स्वेच्छा से निर्वाचन में आए किसी भी दल को मत देकर अपना प्रतिनिधि चुनती है. लोकतंत्र संबंधी अब्राहम लिंकन सर्वपरिचित परिभाषा ‘लोकतंत्र जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए शासन है’ एक आदर्श परिभाषा है (संभवत: पूर्णत: सटीक और सर्वमान्य न हो) जो इस बात की अपेक्षा करती है कि एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक न्याय की व्यवस्था हो, जिसमें जहां वैचारिक स्वातंत्र्य का सम्मान हो.
लोकतंत्र की अवधारणा के बारे में भिन्न-भिन्न मत हो सकते हैं और यह स्वाभाविक भी है. जहां एक ओर लिंसेंट लोकतंत्र को एक ऐसी राजनीतिक प्रणाली के रूप में देखते हैं जो पदाधिकारियों को बदलने की ‘शक्ति’ रखती है और जो एक ऐसा रचनातंत्र का समर्थन करती है जहां जनता अपने मन के अनुकूल राजनीतिक प्रभारी का चयन कर सकते हैं, इस संबंध में निर्णय ले सकते हैं वहीं दूसरी ओर मैक्सफर्न लोकतंत्र को सरकार के चयन, कानून बनाने और निर्णय लेने के संदर्भ में देखते हैं। शूप्टर लोकतंत्र को जनता की इच्छा, लोगों के चयन, सामान्य हित, नागरिक और राजनीतिक स्वतंत्रता, राजनीतिक सहभागिता से जोड़कर देखते हैं। इस सभी दृष्टिकोणों में लोकतंत्र संबंधी मूल बिंदु इस प्रकार हैं–
इन सभी बिंदुओं में जहां ‘लोक’ सम्मिलित है वहीं कहीं-न-कहीं ‘लोक-कल्याण’ भी सम्मिलित है. इस अर्थ में लोकतंत्र के मूल में वस्तुत: ‘लोक कल्याण’ की भावना निहित है जिसके लिए एक ऐसे तंत्र की बात की जाती है जिसके चयन और निर्णय में ‘लोक’ की भागीदारी’ सुनिश्चित है. ‘न्याय’ भी स्वयं में अनेक आयामों को सम्मिलित किए हुए है और अपने वास्तविक अर्थ में वह हर प्रकार के न्याय की अपेक्षा करता है. चाहे राजनीतिक न्याय हो या सामाजिक या फिर आर्थिक! पूर्वोक्त दृष्टिकोणों और बिंदुओं को ‘लोकतांत्रिक राजनीति’ में समग्रता के साथ समेटा गया है.
लोगों द्वारा चुने गए शासक ही सारे प्रमुख फैसले करते हैं. चुनाव लोगों के लिए निष्पक्ष अवसर और इतने विकल्प उपलब्ध कराता है कि वे चाहें तो मौजूदा शासकों को बदल सकते हैं; यह विकल्प और अवसर सभी लोगों को समान रूप से उपलब्ध हों; और इस चुनाव से बनी सरकार संविधान द्वारा तय बुनियादी क़ानूनों और नागरिकों के दायरे ओ मानते हुए काम करती है. यदि इन बिंदुओं को संज्ञान में लिया जाए और निष्पक्षता के साथ चयन किया जाए तो स्थितियां बेहतर हो सकती हैं, अन्यथा लोकतांत्रिक व्यवस्था में ‘अव्यवस्था’ फैलने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता.
Source : Pawan Sinha