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जाति आधारित जनगणना : सामाजिक नहीं राजनीतिक लाभ की गणना 

अधिकांश दल अपने क्षेत्र और जाति को महत्व देना ही सत्ता का प्रमुख काम मान बैठे हैं. वैसे भी लोकतंत्र संख्या का खेल है और हर राजनेता यह जानना चाहता है कि देश में उसकी जाति की संख्या क्या है.

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Pradeep Singh
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जाति जनगणना( Photo Credit : NEWS NATION)

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देश में इस समय जाति आधारित जनगणना कराने की मांग तेज हो गयी है. हिंदी क्षेत्र के राज्यों में यह मांग बड़ी तेजी से राजनीतिक पार्टियों का मुख्य मुद्दा बनता जा रहा है. जाति आधारित जनगणना कराने का उद्देश्य क्या है? यह अभी पूरी तरह से साफ नहीं है. लेकिन मांग करने वाले दल और नेता कह रहे हैं कि जब तक यह पता नहीं चलेगा कि किस जाति की संख्या कितनी है, तो यह कैसे तय होगा कि उसको आरक्षण में कितना हिस्सा मिलना चाहिए. इससे साफ जाहिर है कि जाति आधारित जनगणना का मुख्य उद्देश्य आरक्षण में जातियों की हिस्सेदारी तय करना और आरक्षण की सीमा को बढ़वाना है.

पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव नजदीक होने के कारण यह मांग और जोर पकड़ रही है. आरक्षण की सीमा को बढ़ाने की मांग बहुत पहले से हो रही है. ऐसे में इन दोनों मांगों को जोड़कर देखना चाहिए.

कांग्रेस औऱ भाजपा को छोड़ दिया जाये तो देश की अधिकांश क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों के राजनीति का आधार जाति है. हर राजनीतिक दल किसी खास जाति का प्रतिनिधित्व करता है और सत्ता में आने के बाद उक्त जाति को हर स्तर पर प्राथमिकता देना सुनिश्चित करता है. जाति, धर्म और क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले अधिकांश दल अपने क्षेत्र और जाति को तरजीह देना ही सत्ता का प्रमुख काम मान बैठे हैं. वैसे भी लोकतंत्र संख्या का खेल है और हर राजनेता यह जानना चाहता है कि उसकी जाति की संख्या देश में क्या है.

सपा, बसपा, राजद, डीएमके और अन्नाडीएमके जैसे दल सरकारी नौकरियों में आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से बढ़ाने की भी मांग कर रहे हैं. ये दल आरक्षण को ही गरीबों-पिछड़ों के कल्याण का एकमात्र रास्ता मानते हैं. ऐसे में उक्त राजनीतिक दलों ने दबाव बनाना शुरू कर दिया है. केंद्र सरकार अबतक यही कहती रही है कि उसने जाति आधारित जनगणना नहीं करने का नीतिगत फैसला लिया है. 

भारत में आखिरी बार 1931 में जाति आधारित जनगणना हुई थी. तब देश अंग्रेजों का गुलाम था. ब्रिटिश सरकार अपने हिसाब से जाति-धर्म का इस्तेमाल करती थी. आजादी के बाद भारत सरकार ने जाति आधारित जनगणना पर रोक लगा दिया. परतंत्र भारत में अंतिम बार 1941 में हुई जनगणना में भी जाति आधारित डेटा लिया गया था, मगर रिपोर्ट में छापा नहीं गया.

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भारत सरकार के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, साल 1921 में भारत की जनसंख्‍या 31.8 करोड़ थी जो 1931 में बढ़कर 35.28 करोड़ हो गई. प्रतिशत के लिहाज से यह पिछले चार दशकों का सबसे बड़ा उछाल था. इससे पहले वाले दशक में आबादी महज 1.2 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ी थी.

1931 की जनगणना में सभी धर्मों के लोगों का डेटा जुटाया गया था. अंग्रेज जनगणना में हर रियासत के हिसाब से धर्म और जाति के आधार पर आंकड़े तैयार करते थे. किसी धर्म में कितने पुरुष, महिलाएं बच्‍चे और बुजुर्ग हैं, सब डेटा तैयार होता था.

भारत के किस प्रांत में कितने विदेशी पुरुष और महिलाएं हैं, इसका डेटा भी जनगणना में जुटाया जाता था. आंकड़ों के अनुसार, 1911 में जहां करीब 1.85 लाख विदेशी थे तो 1931 में घटकर 1.55 लाख रह गए.

1931 में धर्म के आधार पर साक्षरता के आंकड़े भी जारी किए गए. इसके अनुसार, इस्‍लाम धर्म में निरक्षरता सबसे ज्‍यादा थी. हिंदू भी तब ज्‍यादा पढ़े-लिखे नहीं था. इसके उलट पारसी जैसे अल्‍पसंख्‍यक समुदाय में साक्षरता की दर 79 प्रतिशत से अधिक थी.

HIGHLIGHTS

  •  1931 की जनगणना में सभी जातियों और धर्मों के लोगों का जुटाया गया था डेटा 
  •  1941 की जनगणना में भी जाति आधारित डेटा लिया गया, मगर नहीं किया गया जारी
  • ब्रिटिश सरकार अपने हिसाब से करती थी जाति-धर्म का इस्तेमाल 
lalu prasad yadav Nitish Kumar PM Narendra Modi Caste Census
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