जन्मदिन विशेष: मिर्ज़ा ग़ालिब उर्दू शायरी का वह अज़ीम शख्सियत जो वक़्त की धूल में कभी खोया नहीं
मिर्ज़ा ग़ालिब वक्त की धूल में खोने वाले शाय़र नहीं है। आज भी उर्दू हो या हिन्दी, दोनों भाषा की शायरी करने वालों को गालिब से बहुत कुछ सीखने को मिलता है।
नई दिल्ली:
असदउल्लाह बेग ख़ां उर्फ 'ग़ालिब' उर्दू शायरी के वह अज़ीम शख्सियत, जिनकी शायरी इतनी रुहानी और चुटीली थी कि आज उनके इंतकाल के इतने सालों बाद भी लोग उन्हें भूले नहीं हैं। 27 दिसंबर 1796 आगरा में जन्मे गालिब के पूर्वज तुर्की से भारत आए थे। गालिब के दादा के दो बेटे व तीन बेटियां थी। मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग खान व मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग खान उनके बेटों का नाम था। मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग खान गालिब के वालिद साहब थे।
तू तो वो जालिम है जो दिल में रह कर भी मेरा न बन सका ग़ालिब, और दिल वो काफिर, जो मुझ में रह कर भी तेरा हो गया, शायरी की कद्रदान ग़ालिब को कुछ इसी तरह याद करते हैं।
'फ़िक्र-ए-दुनिया में सर खपाता हूं, मैं कहां और ये बवाल कहां' ग़ालिब की ज़िदगी भी उनके इस शेर की तरह मुसीबतों से भरी रही।
शिक्षा
उनके शुरुआती शिक्षा के बारे मे स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन ग़ालिब के अनुसार उन्होने 11 वर्ष की अवस्था से ही उर्दू एवं फ़ारसी मे गद्य और पद्य लिखना शुरू कर दिया था।
विवाह
13 साल की उम्र मे उनका विवाह नवाब ईलाही बख्श की बेटी उमराव बेगम से हो गया था। ग़ालिब विवाह के बाद वह दिल्ली आ गये और आख़िरी वक्त तक दिल्ली में रहे। विवाह के बाद ‘ग़ालिब’ की आर्थिक कठिनाइयां बढ़ती ही गईं।
बहादुर शाह जफर के दरबार में शायर थे गालिब
1850 में बहादुर शाह जफर द्वितीय के दरबार में उनको दबीर-उल-मुल्क की उपाधि दी गयी। 1854 में खुद बहादुर शाह जफर ने उनको अपना कविता शिक्षक चुना। मुगलों के पतन के दौरान उन्होंने मुगलों के साथ काफी वक़्त बिताया। मुगल साम्राज्य के पतन के बाद ब्रिटिश सरकार ने उन पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और उनको कभी पूरी पेंशन भी नहीं मिल पायी।
दिल्ली में ली आख़िरी सांस
मुगलकाल के खत्म होने पर वह दिल्ली आ गए। दिल्ली में उन्हें बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा। गालिब के पास खाने तक के पैसे नहीं हुआ करते थे। उन्होंने लोगों के मनोरंजन के लिए शायरी सुनाने लगे। मिर्जा ने दिल्ली में 'असद' नाम से शायरी शुरू की। लोगों ने उनकी शायरी को सराहा और गालिब शायरी की दुनिया के महान शायर बन गए।ग़ालिब को शराब पीने की लत थी जिसकी वजह से उन पर बहुत ज़्यादा क़र्ज़ हो गया जिसे वह अंतिम वक्त तक नहीं चुका पाए।
15 फरवरी 1869 को गालिब ने आखिरी सांस ली। उन्हें दिल्ली के निजामुद्दीन बस्ती में दफनाया गया। उनकी कब्रगाह को मजार-ए-गालिब के नाम से जाना जाता है। ग़ालिब पुरानी दिल्ली के जिस मकान में रहते थे, उसे गालिब की हवेली के नाम से जाना जाता है।
ग़ालिब वक्त की धूल में खोने वाले शाय़र नहीं है। आज भी उर्दू हो या हिन्दी, दोनों भाषा की शायरी करने वालों को गालिब से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। आज भी हर प्यार करने वालों के दिल में ग़ालिब का दिल धड़कता है। गालिब को पढ़ने वाले लोग जमाने की परवाह नहीं करते वह तो बस वही करते हैं जो उन्हें सही लगता है बिलकुल ग़ालिब के इस शेर की तरह
होगा कोई ऐसा भी जो ग़ालिब को न जाने,
शायर तो वो अच्छा है पर बदनाम बहुत है।
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