आखिर क्या है भीमा-कोरेगांव संघर्ष, जाने क्यों मनाते हैं दलित इस दिन जश्न?

महाराष्ट्र के पुणे जिले में भीमा-कोरेगांव की लड़ाई की 200वीं सालगिरह पर आयोजित एक कार्यक्रम में हिंसक झड़प होने के बाद पूरे राज्य में बंद का ऐलान कर दिया गया है।

महाराष्ट्र के पुणे जिले में भीमा-कोरेगांव की लड़ाई की 200वीं सालगिरह पर आयोजित एक कार्यक्रम में हिंसक झड़प होने के बाद पूरे राज्य में बंद का ऐलान कर दिया गया है।

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vineet kumar1
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आखिर क्या है भीमा-कोरेगांव संघर्ष, जाने क्यों मनाते हैं दलित इस दिन जश्न?

महाराष्ट्र बंद ( फाइल फोटो )

महाराष्ट्र के पुणे जिले में भीमा-कोरेगांव की लड़ाई की 200वीं सालगिरह पर आयोजित एक कार्यक्रम में हिंसक झड़प होने के बाद पूरे राज्य में बंद का ऐलान कर दिया गया है। इस कारण पूरे राज्य में तनावपूर्ण स्थिति बनी हुई है।

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आखिर क्या है इतिहास?

लगभग 200 साल पहले 1 जनवरी 1818 को पुणे के भीमा-कोरेगांव गांव में अंग्रेज और पेशवा बाजीराव-II की सेना के बीच युद्ध हुआ था। इस युद्ध में कप्तान फ्रांसिस स्टॉन्टन की अगुवाई में ईस्ट इंडिया कंपनी ने मराठाओं को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया।

दरअसल पेशवा बाजीराव-II की अगुवाई में 28 हज़ार मराठा पुणे पर हमला करने की योजना बना रहे थे। रास्ते में उन्हें 800 सैनिकों से सजी अंग्रेज कंपनी फोर्स मिली, जो पुणे में ब्रिटिश सैनिकों की ताकत बढ़ाने के लिए जा रही थी।

जब यह बात पेशवा को पता लगी तो उन्होंने 2 हजार सैनिक भेज कर कोरेगांव में मौजूद कंपनी फोर्स पर हमला करने का आदेश दिया।

कप्तान फ्रांसिस स्टॉन्टन की अगुवाई में ईस्ट इंडिया कंपनी की इस टुकड़ी में ज्यादातर सैनिक भारतीय मूल के फौजी थे और उनमें से भी महार समुदाय के लोग थे, जिन्हें अछूत माना जाता था।

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इस टुकड़ी ने करीब 12 घंटे तक अपनी पोजीशन संभाले रखी और मराठों को कामयाब नहीं होने दिया, जिसके बाद मराठों ने फैसला बदल अपने कदम वापस खींच लिए क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं जनरल जोसफ स्मिथ की अगुवाई में बड़ी ब्रिटिश टुकड़ी वहां पहुंच गई तो मुकाबला आसान नहीं होगा।

अलग-अलग इतिहासकारों के मुताबिक इस लड़ाई में 834 कंपनी फौजियों में से 275 मारे गए, घायल हुए या फिर लापता हो गए। इनमें दो अफसर भी शामिल थे। इंफैंट्री के 50 लोग मारे गए और 105 जख़्मी हुए।

ब्रिटिश अनुमानों के मुताबिक पेशवा के 500-600 सैनिक इस लड़ाई में मारे गए या घायल हुए।

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आखिर क्यों मनाते हैं दलित इसे शौर्य दिवस के रूप में?

इतिहासकार के अनुसार महारों के लिए ये अंग्रेज़ों की नहीं बल्कि अपने सम्मान की लड़ाई थी।

महारों को वर्णव्यवस्था से बाहर माना जाता था और प्राचीनकाल में 'अछूतों' के साथ जो व्यवहार होता था, वही व्यवहार पेशवा शासक भी महारों के साथ करते थे।

इतिहासकारों के अनुसार महारों को नगर में प्रवेश करते वक्त अपनी कमर में एक झाड़ू बांध कर चलना होता था ताकि उनके 'प्रदूषित और अपवित्र' पैरों के निशान उनके पीछे घिसटने से झाड़ू से मिटते चले जाएं।

उन्हें अपने गले में एक बरतन भी लटकाना होता था ताकि वो उसमें थूक सकें और उनके थूक से कोई सवर्ण 'प्रदूषित और अपवित्र' न हो जाए। इस लड़ाई में ब्रिटिश फ़ौज ने महारों को ट्रेनिंग दी और पेशवाई के ख़िलाफ लड़ने की प्रेरणा दी।

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आखिर क्या है मामला?

200वीं सालगिरह के मौके पर एक जनवरी को हुई हिंसा और एक युवक की मौत के खिलाफ पूरे महाराष्ट्र में विरोध प्रदर्शन हो रहा है। इसके चलते राज्य के कई इलाकों में सुबह से ही आवाजाही कम देखी जा रही है।

राज्य में ऐहतियातन कई निजी स्कूल बंद कर दिये गए हैं। स्कूल बस एसोसिएशन ने भी बुधवार को सुरक्षा कारणों से बंद रखने का फैसला किया है।

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Source : News Nation Bureau

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