यह झारखंड के नक्सलवाद प्रभावित चतरा जिले के एक ऐसे गांव की कहानी है, जहां के चार हुनरमंद युवकों ने पूरे गांव को आत्मनिर्भरता की राह पर चलना सिखा दिया है। गांव का नाम है फतहा, जो चतरा जिला मुख्यालय से करीब 25 किलोमीटर दूर सिमरिया प्रखंड में स्थित है। इस गांव में होनेवाला कपड़ों पर कशीदाकारी, कढ़ाई और कारीगरी का उम्दा काम देश के कई महानगरों में पहुंच रहा है। अब स्वरोजगार और स्वावलंबन के लिए इस गांव की मिसाल दी जा रही है।
इस गांव के चार युवक मेराज, हसमत, खालिद और नदीम पहले दिल्ली और बनारस जाकर कशीदाकारी का काम करते थे। परदेस में होनेवाली मुश्किलों को देखकर उन्होंने गांव लौटकर अपने घरों से यह काम करने का फैसला लिया और फिर देखते-देखते उनका हुनर गांव के हर उस युवा तक जा पहुंचा, जिनके पास पहले खेती और दूसरों के यहां मजदूरी के सिवा कोई काम न था। आज गांव में लगभग तीन दर्जन लोग महानगरों के बाजारों से मिलने वाले ऑर्डर को पूरा करने के लिए हर रोज सुबह से शाम तक कशीदाकारी में जुटे रहते हैं। आज यहां का हर कारीगर गांव में रहकर 18 से 25 हजार रुपये महीने तक की कमाई कर रहा है। सबसे खास बात यह कि आत्मनिर्भरता की यह राह गांव ने बगैर किसी सरकारी मदद के पकड़ी है। गांव में पिछले डेढ़ दशकों से यह काम चल रहा है, लेकिन आज तक किसी कारीगर ने किसी बैंक या वित्तीय संस्था से न तो कोई मदद ली है और न ही कोई कर्ज।
यहां के सबसे पुराने कारीगर हैं मो. मेराज। वह वर्ष 1999 में किसी काम की तलाश में दिल्ली गए थे। वहां लेडी श्रीराम कॉलेज के सामने एक दुकानदार के यहां रहकर उन्होंने यह काम सीखा। उन्होंने जल्द ही समझ लिया कि दिल्ली में रहकर वह जितना कमा पाते हैं, उससे घर-परिवार का गुजारा मुश्किल से हो पाएगा। डेढ़-दो साल के बाद वह रांची लौटकर एक दुकानदार के यहां यही काम करने लगे। यहीं उन्होंने समझा कि महिलाओं के कपड़ों, साड़ियों पर हाथ के काम की शहर के बाजार में अच्छी डिमांड है। उन्होंने रांची के व्यवसायी को कहा कि वह गांव में इस काम में और लोगों को जोड़कर उन्हें ज्यादा संख्या में कशीदाकारी वाले कपड़ों की सप्लाई कर सकते हैं। व्यवसायी को भी यह बात अच्छी लगी। फिर मेराज गांव लौटे और तीन-चार संबंधियों को यह हुनर सीखा दिया। मेराज के अलावा खालिद, हशमत, नदीम ने भी बाहर रहकर यह काम सीखा था। ये सारे लोग धीरे-धीरे गांव लौटे और फिर गांव में कशीदाकारी का हुनर एक से होकर दूसरे हाथ तक पहुंचता रहा।
मो. मेराज ने आईएएनएस को बताया कि उनके साथ 10 लोग काम करते हैं। किसी के पास काम की कमी नहीं है। चुनौती समय पर ऑर्डर पूरा करने की है। इसके लिए हमलोग दस से बारह घंटे तक काम करते हैं। एक अन्य कारीगर मो. आमिर बताते हैं कि उनके पास काम बहुत है, लेकिन वर्कशॉप के लिए जगह ही कम जा रही है। उन्हें हाल में एक इंदिरा आवास की मंजूरी मिली है। यह आवास बन जाने के बाद वहां कुछ और लोगों को काम करने की जगह मिल सकेगी।
कारीगर खालिद के मुताबिक गांव में मुख्य तौर पर चार तरह के कपड़ों वेट, अरगंजा, जॉर्जेट और क्रेप पर कशीदाकारी का काम होता है। वह तैयार कपड़ों को पहले रांची पहुंचाते हैं। वहां से यह माल कोलकाता, दिल्ली, बनारस, मुंबई सहित देश के कई शहरों तक पहुंचता है। एक साड़ी में कढ़ाई का काम करने में एक कारीगर को पांच से छह दिन लगते हैं। इसके एवज में उन्हें तीन से चार हजार रुपये मिलते हैं। इसी तरह एक दुपट्टा को तैयार करने में दो से ढाई दिन लगते हैं और इसके बदले उन्हें पंद्रह सौ रुपये मिल जाते हैं। अब ये लोग दिल्ली और दूसरे शहरों से खुद कपड़ा खरीदकर लाते हैं और उन पर कशीदाकारी करके बाजार तक पहुंचाते हैं।
चतरा के स्थानीय पत्रकार सूर्यकांत कमल कहते हैं कि फतहा गांव की पहचान चतरा, हजारीबाग और आस-पास के शहरों में कपड़ों में अनूठी कारीगरी के लिए है। यहां के कारीगरों को सरकारी मदद और सुविधाएं मुहैया कराई जाए तो यह संगठित लघु उद्योग का रूप ले सकता है।
चतरा की पहचान घोर नक्सल प्रभावित इलाके के रूप में होती है। स्वावलंबन की ऐसी कोशिशों को सरकारी सहायता से और विस्तार मिले तो इलाके के तस्वीर और तकदीर बदल सकती है।
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Source : IANS