न्यायिक अधिकारियों पर हमले और मीडिया ट्रायल न्यायपालिका के समक्ष नए खतरों में शुमार: एन वी रमना
न्यायिक अधिकारियों पर हमले और मीडिया ट्रायल न्यायपालिका के समक्ष नए खतरों में शुमार: एन वी रमना
विजयवाड़ा:
उच्चत्तम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एन वी रमना ने न्यायपालिका पर हमलों की बढ़ती घटनाओं की तरफ ध्यान आकर्षित करते हुए कानूनी प्रवर्तन एजेंसियों से इनसे प्रभावी तरीके से निपटने की आवश्कता पर बल दिया है।न्यायमूर्ति रमना ने रविवार को पांचवे दिवंगत लावू वेंकटेश्वरालू एंडोमेंट लेक्च र में कहा हाल ही में न्यायिक अधिकारियों पर हमलों की घटनाओं में बढ़ोत्तरी हुई है और अगर राजनीतिक दलों के पक्ष में कोई फैसला नहीं आता है तो प्रिंट तथा सोशल मीडिया में भी जजों के खिलाफ ठोस अभियान चलाए जाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ये हमले प्रायोजित और समन्वित हैं और कानूनी प्रवर्तन एजेंसियों खासकर विशिष्ट एजेंसियों को ऐसे दुर्भावनापूर्ण हमलों से प्रभावी तरीके से निपटने की आवश्यकता है। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि जब तक अदालतें हस्तक्षेप नहीं करती हैं और आदेश पारित नहीं करती हैं तो संबंधित विभाग तथा अधिकारी जांच की प्रकिया में आगे नहीं बढ़ते हैं। सरकारों से अपेक्षा है और इस बात के लिए भी बाध्य हैं कि वे ऐसा सुरक्षित माहौल तैयार करें ताकि न्यायाधीश और न्यायिक अधिकारी निर्भीकता से अपने कार्यों को अंजाम दे सकें।
उन्होंने मीडिया ट्रायल की तरफ ध्यान आकर्षित करते हुए कहा कि वे मामलों के निर्धारण में प्रेरक तत्च नहीं हो सकते हैं।
न्यायमूर्ति रमना ने कहा न्यायपालिका की स्वतंत्रता और उसके कामकाज को जो सबसे अधिक प्रभावित कर रहा है वह मीडिया ट्रायल के बढ़ते मामले हैं। नए मीडिया माध्यमों के पास चीजों को बढ़ा चढ़ा कर पेश करने की क्षमता है लेकिन वे सही और गलत ,अच्छे या बुरे, वास्तविक या फर्जी के बीच अंतर करने में अक्षम प्रतीत होते हैं। किसी भी तरह के मामलों के निर्धारण में मीडिया ट्रायल कोई प्रेरक बल नहीं हो सकता है।
न्यायमूर्ति रमना ने न्यायपालिका के समक्ष मौजूदा और नई चुनौतियों का जिक्र करते हुए कहा कि अगर देश एक लोकतंत्र के तौर पर आगे बढ़ता है तो संविधान बदलाव के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान करता है। उन्होंने कहा कि न्यायपालिका को उसकी राह में आने वाली चुनौतियों के निपटारे के लिए चीजों को तेजी से आत्मसात करने तथा अपने रूख को लचीला बनाना है।
उन्होंने कहा इस तरह की बातों को दोहराना अब एक फैशन सा हो गया कि न्यायाधीश खुद ही न्यायाधीशों की नियुक्तियां कर रहे हैं और मेरा मानना है कि यह सबसे प्रचारित मिथकों में एक है। सच्चाई यह है कि न्यायपालिका इस प्रक्रिया का मात्र एक हिस्सा हैं और इसमें केन्द्रीय विधि मंत्रालय, राज्य सरकारें, राज्यपाल, उच्च न्यायालय कॉलेजियम, खुफिया ब्यूरो और अंत में शीर्ष कार्यकारी भी शामिल हैं जो किसी उम्मीदवार की उपयुक्तता की जांच करता है। मुझे इस बात को कहते हुए दुख होता है कि जो मामलों की अच्छी तरह जानकारी रखते हैं कि वे भी इस तरह के दुष्प्रचार को बढ़ावा देते हैं, लेकिन इस सब के बावजूद यह वाक्यांश कुछ वर्गों पर ही लागू होता है।
उन्होंने कहा किसी भी विधेयक को पारित करते समय उसकी संवैधानिकता की मूल रूप से जांच भी नहीं की जाती है और विधायिका से कम से कम न्यूनतम यह अपेक्षा की जाती है कि किसी भी कानून को बनाते समय वे स्थापित संवैधानिक सिद्वांतों का पालन तो करें । उन्हें किसी भी कानून को बनाते समय यह भी ध्यान रखना होगा कि इसके लागू होने के बाद लोगों को जिन परेशानियों का सामना करना पड़ेगा उनके समाधान के तौर तरीके भी बनाए गए हैं या नहीं। लेकिन इन बातों की पूरी तरह उपेक्षा कर दी जाती है।
न्यायमूर्ति रमना ने एक उदाहरण के तौर पर बिहार मद्य निषेध अधिनियम को लाूग करने का जिक्र करते हुए कहा कि इसके बाद वहां अदालतों में जमानत की अर्जियों की बाढ़ सी आ गई है क्योंकि एक साधारण जमानत याचिका का निपटारा करने में ही एक वर्ष का समय लग जाता है।
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