स्थानीय पुलिस की अक्षमता के कारण केंद्र सरकार ने 1963 में हाई-प्रोफाइल आपराधिक, भ्रष्टाचार, साजिश या अन्य महत्वपूर्ण मामलों को हल करने के उद्देश्य से केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की स्थापना की।
राज्य पुलिस या अन्य एजेंसियों द्वारा इस तरह के जटिल मामलों को सुलझाने में विफल रहने पर सीबीआई ने उन मामलों को सुलझाकर जल्द ही एक आकर्षक आभामंडल बना लिया। सीबीआई ने लोगों के बीच भय पैदा कर दिया।
कई बड़ी वारदातों का समाधान कर इसने जल्द ही आम लोगों के बीच एक रॉबिन हुड-सह-सुपरमैन की छवि बना ली। लोगों ने महसूस किया कि यह उन्हें भ्रष्ट, शक्तिशाली व बेइमानों से बचा सकती है।
लेकिन सीबीआई की छवि बहुत लंबे समय पर बेदाग नहीं रही। पिछले कुछ दशकों में इस छवि प्रभावित हुई है। इस पर सत्तारूढ़ पार्टी के दबाव में काम करने और जांच के बोझ से दबने का आरोप लगने लगा। कई सेवानिवृत्त अधिकारियों का कहना है कि अपने कई कार्यो की वजह से एजेंसी की विश्वसनीयता प्रभावित हुई। उस पर संदेह होने लगा।
सीबीआई एक पूर्व-क्षेत्रीय निदेशक एजेंसी के 60 वर्षों के स्कोरकार्ड को बमुश्किल 35 प्रतिशत के रूप में देखते हैं। इसका कारण एजेंसी के पास संसाधनों कमी, दबाव व काम करने की आजादी का अभाव बताते हैं।
हालांकि, सीबीआई मुंबई के पूर्व पुलिस अधीक्षक, वाई. पी. सिंह 1991 के हर्षद मेहता के नेतृत्व वाले शेयर बाजार घोटाले, 1993 के मुंबई सीरियल ब्लास्ट केस या 2010 आदर्श सोसाइटी कांड जैसी कुछ सफल जांच के लिए सीबीआई को पूर्ण अंक देते हैं।
लेकिन, 26/11 (2008) मुंबई आतंकी हमला अभी तक अपने तार्किक निष्कर्ष तक नहीं पहुंचा है। बॉलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत 2020 की मौत की जांच, जिसमें परिणाम स्पष्ट है, इसलिए सीबीआई को क्लोजर रिपोर्ट पेश करनी चाहिए थी, लेकन इसमें देरी हुई।
नागपुर के एक पूर्व डिप्टी एसपी को लगता है कि सीबीआई के पंख काट दिए गए हैं, एजेंसी राजनीतिक आकाओं के हाथों में कठपुतली हो गई है।
2013 में, सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को अपने मालिक की आवाज में बोलने वाला एक पिंजरे का तोता करार दिया था और कहा था कि कई मालिक हैं और सीबीआई को निरंकुश शक्ति देना संभव नहीं है।
शीर्ष अदालत ने यह भी देखा कि कैसे सीबीआई पुलिस बल बन गई है और केंद्र सरकार के प्रशासनिक नियंत्रण में है। सीबीआई जांच स्वतंत्र होने की आवश्यकता का आग्रह करती है।
इस पर सिंह कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी आज भी सही है, क्योंकि राजनीतिक हस्तक्षेप बंद नहीं हुआ है, और विशेष रूप से भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (धारा 19) में संशोधन के बाद किसी लोक सेवक पर मुकदमा चलाने से पहले पूर्व मंजूरी की आवश्यकता के बाद सीबीआई का मनोबल गिरा हुआ है।
सिंह ने कहा, पहले, सीबीआई केवल जटिल मामलों को ही संभालती थी, लेकिन आज बड़ी मछलियां दूर हो रही हैं, यह छोटी मछलियों का शिकार कर रही है। सीबीआई को पूरी तरह से स्वायत्त बनाया जाना चाहिए और इसके तहत काम करना चाहिए।
हाल के वर्षों में एजेंसी के सीमित प्रभाव का समर्थन करते हुए सीबीआई के एक पूर्व उप निदेशक ने कहा कि कुछ सबसे बड़े और सबसे हाई-प्रोफाइल मामलों को सुलझाने में इसके शानदार योगदान के बावजूद, आज एजेंसी ऐसे मामलों की जांच करने में व्यस्त है, जो एक स्थानीय पुलिस चौकी संभाल सकती है।
नाम न छापने की शर्त पर उपनिदेशक ने कहा, सभी नियुक्तियां राजनेताओं के हाथों में हैं, इसलिए ऐसा लगता है कि एजेंसी ने राजनीतिक रंग हासिल कर लिया है, जो वर्तमान व्यवस्था के रंग के आधार पर बदलते रहते हैं। सीबीआई बहुत आम हो गई है और अपने दुर्लभ भय और भय कारक को खो दिया है।
आश्चर्य की बात नहीं है कि सीबीआई राजनीतिक आकाओं की सनक के कारण अपने मनमुताबिक किसी भी क्षेत्र में घुसपैठ नहीं कर सकती है, जैसा कि केंद्र में भारतीय जनता पार्टी के पिछले 9 वर्षों के शासन में देखा गया है।
केंद्र ने संसद में स्वीकार किया कि दिसंबर 2022 तक नौ राज्यों ने सीबीआई से सामान्य सहमति वापस ले ली है। इनमें तेलंगाना, मेघालय, छत्तीसगढ़, झारखंड, केरल, मिजोरम, पंजाब, राजस्थान और पश्चिम बंगाल शामिल हैं और संयोग से सभी राज्य विपक्षी दल द्वारा शासित हैं।
महाराष्ट्र, जहां तत्कालीन महा विकास अघाड़ी शासन ने सीबीआई को सामान्य सहमति से बाहर कर दिया था, अक्टूबर 2022 में भाजपा समर्थित नई सरकार के पिछले साल जून में सत्ता संभालने के बाद, इसे बहाल कर दिया।
सीबीआई की शानदार प्रतिष्ठा के नुकसान का दुख अधिकांश पूर्व शीर्ष अधिकारी महसूस करते हैं।
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Source : IANS