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धर्मांतरण के बाद SC,ST को मिलता है आरक्षण का लाभ? जानें संविधान के जानकार ज्ञानंत सिंह से

इस तरह से धर्म परिवर्तन करके इस्लाम या फिर ईसाई धर्म या इस्लाम धर्म स्वीकार करने वाले SC/ST के अधिकारों का मसला लगातार चर्चा का केन्द्र बना हुआ है. धर्म परिवर्तन करने वाले दलितों को भी अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल कर उन्हें भी सरकार की तमाम योज

Updated on: 11 Jan 2021, 07:04 PM

नई दिल्ली:

हम आए दिन समाज में ऐसे बयान सुनते रहते हैं कि सामाजिक उपेक्षा के चलते फलां जगह के दलितों ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया या फिर इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया. इसके साथ ही हमें ऐसी खबरें भी मिलती हैं कि फलां जगह पर धर्मांतरण करने वाले लोगों की एक बार फिर हिन्दू धर्म में वापसी हो गई. इस तरह से धर्म परिवर्तन करके इस्लाम या फिर ईसाई धर्म या इस्लाम धर्म स्वीकार करने वाले SC/ST के अधिकारों का मसला लगातार चर्चा का केन्द्र बना हुआ है. धर्म परिवर्तन करने वाले दलितों को भी अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल कर उन्हें भी सरकार की तमाम योजनाओं और आरक्षण सुविधा का लाभ देने की मांग लंबे समय से उठ रही है. आइए हम संवैधानिक मामलों के जानकार ज्ञानंत सिंह जी से इस बारे में कुछ जानकारी लेते हैं.

प्रश्नः क्या धर्म परिवर्तन के बाद भी एससी और एसटी के लोग सरकार द्वारा दिए जाने वाले आरक्षण का फायदा उठा सकते हैं?

जवाब- सिर्फ हिंदू, सिख और बौद्ध धर्म के अनुसूचित जाति (SC) समुदाय के लोग आरक्षण और दूसरी सुविधाओं का फायदा उठा सकते है. मूलतः संविधान में हिन्दू धर्म के SC समुदाय के लिए व्यवस्था थी। बाद में 1956 में इसे सिख आउट  1990 में इसे बौद्ध के लिए भी जोड़ दिया गया लेकिन अगर कोई इस्लाम या ईसाई  में कन्वर्ट होता है, उसे आरक्षण/ दूसरी सुविधाओं का लाभ नहीं मिलेगा. हां, फिर से अगर वो हिंदू धर्म में कंवर्ट होता है, तो उसे लाभ मिलना शुरू हो जाएगा. लेकिन अनुसूचित जनजाति(ST) के लिए स्थिति अलग है. अनुसूचित जनजाति (ST) समुदाय के लोग किसी भी धर्म में रहे कन्वर्ट हो, उन्हें सभी लाभ मिलेंगे.

प्रश्नः SC संसद के क़ानून में किस हद तक दखल दे सकती है? क्या बिना सुनवाई रोक पर अमल का आदेश सैद्धान्तिक तौर पर ठीक है?

जवाब: संविधान में पॉवर ऑफ डिवीजन है. कोर्ट को संवैधानिक समीक्षा का अधिकार है. दो अहम पहलू जिन पर कोर्ट किसी क़ानून को परखता है.

प्रश्नः क्या संसद को वो क़ानून बनाने अधिकार है? राज्यों के अधिकार में दखल तो नहीं मूल अधिकारों का हनन तो नहीं?

जवाबः कोर्ट को क़ानून  समीक्षा कर बरकरार रखने या रद्द करने का अधिकार है. पर सुनवाई करे वैसे सरकार का क़ानून  को प्रथम दृष्टया ये माना जाता है कि वो क़ानूनी तौर पर वैध ही है. न्यायिक सिद्धान्त यही है. लिहाजा कानून पर रोक के आदेश के लिए सुनवाई की ज़रूरत तो होगी ही. लेकिन यहां ध्यान रहे क़ानून पर रोक और उसके अमल पर रोक दोनों अलग अलग चीजें है. क़ानून पर रोक के लिए सुनवाई की ज़रूरत पड़ती है. पर अमल पर रोक ,हालात के मद्देनजर कोर्ट लगा सकता है. उसके लिए क़ानून की मेरिट पर जाने की ज़रूरत नहीं.