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आज़ादी के 70 साल: जब चिटगांव में स्कूली बच्चों ने अग्रेज़ी हुकूमत को हिला कर रख दिया

यह वो लड़ाई थी जिसे किसी बड़े क्रांतिकारी, बड़े सुधारक और बिना किसी बाहरी सहारे के मुट्ठी भर स्कूल के बच्चों ने लड़ी और अंग्रेजी हुकुमत की सत्ता को हिला कर रख दिया।

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pradeep tripathi
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आज़ादी के 70 साल: जब चिटगांव में स्कूली बच्चों ने अग्रेज़ी हुकूमत को हिला कर रख दिया

चिटागांव की क्रांति के नेता मास्टर सूर्य सेन और प्रीतिलता वाद्देदर

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चिटागांव की क्रांति आज़ादी के लिए संघर्षों के लिए लड़ी गई अनेक लड़ाईयों में सबसे अविश्वसनीय और अकल्पनीय थी। यह वो लड़ाई थी जिसे किसी बड़े क्रांतिकारी, बड़े सुधारक और बिना किसी बाहरी सहारे के मुट्ठी भर स्कूल के बच्चों ने लड़ी और अंग्रेजी हुकुमत की सत्ता को हिला कर रख दिया।

यह वो कहानी थी जो आने वाले दिनों में लोगों के लिए मिसाल बन गई। उन लोगों के लिए प्रेरणा बन गई जो पहले ही विद्रोह की लड़ाई में जल रहे थे, उनकी हल्की पड़ती हिम्मत को इस विद्रोह ने नई ऊर्जा और हिम्मत दी।

एक तरफ गांधी जी के नाम की मशाल लिए देश में आज़ादी के दीवानों का प्यार परवान चढ़ रहा था। तो दूसरी तरफ ब्रिटिश भारत के बंगाल के एक गांव चिटगोंग में कुछ स्कूली बच्चे मिलकर एक अलग और अद्भूत इतिहास रचने की तैयारी कर रहे थे।

सूर्यसेन और क्रांतिदल

इस कहानी के मुख्य किरदार थे सूर्यसेन। मास्टर दा के नाम से जाने जाने वाले सूर्यसेन एक अध्यापक थे और क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित थे।

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अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ चिटागोंग के आज़ादी के परवानों की लिस्ट में सूर्यसेन के अलावा गणेश घोष, लोकनाथ बल, निर्मल सेन, अंबिका चक्रवर्ती, नरेश राय, शशांक दत्त, अरधेंधु दस्तीदार, तारकेश्वर दस्तीदार, हरिगोपाल बल, अनंत सिंह, जीवन घोषाल, आनंद गुप्ता के अलावा बच्चे और महिलाएं भी शामिल थीं। प्रीतिलता वादेदार और कल्पना दत्त ने इस क्रांतिकारी दल के साथ मिलकर अहम भूमिका निभाई। इसके अलावा बच्चों का भी दल इस क्रांति की लड़ाई में शामिल था जिसमें १४ वर्ष के लड़के सुबोध राय ने जान हथेली पर लेकर लड़ाई में हिस्सा लिया।

मिशन-ए-क्रांति

क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए एक योजना बनाई इस योजना में सबसे पहला और अहम काम था सरकारी पुलिस के शस्त्रागार पर कब्ज़ा करना और बंदुकों, गोलियों और मशीनगनों पर कब्ज़ा कर लेना। योजना का दूसरा हिस्सा था टेलीफोन और टेलीग्राफ के तार डालना तीसरा और सबसे अहम हिस्सा था कोलकाता से जोड़ने वाले रेलमार्गों को बंद कर देना। इसके अलावा यूरोपियन क्लब पर आक्रमण कर बड़ी संख्या में अंग्रेजों को मार डालना।

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इस योजना को अंजाम देने के लिए १८ अप्रैल १९३०, शुक्रवार का दिन चुना गया। योजना के मुताबिक क्रांतिकारी दल ने शस्त्रागार पर हमला कर इसे अपने कब्जें में ले लिया, लेकिन दुर्भाग्य यहां उन्हें बंदुकें तो मिली लेकिन मशीन गन नहीं मिली।

इसके बाद मास्टर दा ने यहां इस छोटी सी सेना जिसे इंडियन रिपब्लिकन आर्मी कहते थे, के साथ मिलकर झंडा फहराकर स्वतंत्रता का ऐलान किया।

इसके बाद दो से तीन दिन के लिए चिटागोंग अंग्रेजों की गुलामी से आज़ाद था। हालांकि मास्टर दा को पता था कि ज़्यादा दिन वो मुकाबला नहीं कर पाएंगे इसीलिए वहां से भाग गए और दल के साथ नगर के पास की पहाड़ियों में छुप गए।

कठिन हालातों में बच्चों की टोली से बनी इस इंडियन रिपब्लिकन आर्मी ने अंग्रेजों से जमकर मुकाबला किया।

२२ अप्रैल को हज़ारों अंग्रेजी सैनिकों ने जलालाबाद की पहाड़ियों को घेर लिया। इस मुठभेड़ में मास्टर दा की लिटिल आर्मी ने करीब ८० अंग्रेज सैनिकों को मार गिराया जबकि क्रांतिकारी दल के १२ जवान शहीद हुए थे। इससे पता चलता है क्रांति की मशाल लिए निकले उन मासूमों की जाबांजी के बारे में।

भूखे-प्यासे अंग्रेजों से टक्कर ले रहे क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों को पीछे धकेलने में कामयाबी हासिल की। स्थिति की नाजुकता को देखते हुए मास्टर दा वहां से साथियों के साथ भाग निकले। कुछ लोगों ने मास्टर दा के साथ गांव में शरण ली। कुछ साथी कलकत्ता चले गए और कुछ पकड़े गए।

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इसके बाद भी अंग्रेजों से छुपते छुपाते वो कई जगह बदलते रहे लेकिन १६ फरवरी १९३३ को आखिरकार उन्हें पकड़ लिया गया और इसके बाद जेल में कई यातनाओं के दौर और मुकदमेबाज़ी के बाद १२ जनवरी १९३४ को उन्हें फांसी दे दी गई। उनके साथ उनके साथी तारकेश्वर दत्त को भी फांसी हुई। कल्पना दत्ता को भी अंग्रेजों ने पकड़ लिया था और उन पर भी मुकदमा चला।

जबकि साहसी प्रीतिलता वादेदार ने यूरोपियन क्लब में घुस कई अंग्रेजों को गोलियों का निशाना बनाया।

इसके बाद पुलिस से बचती बचाती गोली से ज़ख्मी प्रीतिलता वादेदार ने पहाड़ियों में अंग्रेजों से घिरने के बाद जहर खाकर आत्महत्या कर ली थी।

१४ वर्ष के लड़के सुबोध राय को अंग्रेजों ने अंडमान जेल भेज दिया और काला पानी की सज़ा दी।

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११ जनवरी १९३४ को मृत्यु से पहले मास्टर दा का अंतिम पत्र जो उन्होंने अपने मित्र को लिखा-

"म्रत्यु मेरा द्वार खटखटा रही है ! मेरा मन अनंत की ओर बह रहा है , मेरे लिए यह वो पल है जब मैं म्रत्यु को अपने परम मित्र के रूप में अंगीकार करूं ! इस सौभाग्यशील , पवित्र और निर्णायक पल में मैं तुम सबके लिए क्या छोड़ कर जा रहा हूँ ? सिर्फ एक चीज - मेरा स्वप्न , मेरा सुनहरा स्वप्न , स्वतंत्र भारत का स्वप्न ! प्रिय मित्रों , आगे बढ़ो और कभी अपने कदम पीछे मत खींचना ! उठो और कभी निराश मत होना ! सफलता अवश्य मिलेगी ! " अंतिम समय में भी उनकी आँखें स्वर्णिम भविष्य का स्वप्न देख रही थीं !

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Source : News Nation Bureau

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