इलाहाबाद हाईकोर्ट ने संभल केस में लगाया ब्रेक, सपा सांसद को मिली राहत की सांस

जियाउर्रहमान बर्क का नाम उत्तर प्रदेश की सियासत में नया नहीं है. वे न सिर्फ संभल लोकसभा से निर्वाचित जनप्रतिनिधि हैं, बल्कि एक ऐसे नेता भी हैं, जिनका दायरा सिर्फ वोटबैंक तक सीमित नहीं है.

जियाउर्रहमान बर्क का नाम उत्तर प्रदेश की सियासत में नया नहीं है. वे न सिर्फ संभल लोकसभा से निर्वाचित जनप्रतिनिधि हैं, बल्कि एक ऐसे नेता भी हैं, जिनका दायरा सिर्फ वोटबैंक तक सीमित नहीं है.

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Mohit Sharma
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SP MP Ziaur Rahman Barq

SP MP Ziaur Rahman Barq Photograph: (Social Media)

प्रयागराज की पुरानी दीवारों ने इस सप्ताह फिर एक बार एक ऐसे फैसले की गूंज सुनी, जो सिर्फ न्यायिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र में सियासत और कानून के टकराव की एक मिसाल बन सकता है. इलाहाबाद हाईकोर्ट की सिंगल बेंच ने संभल हिंसा मामले में समाजवादी पार्टी के सांसद जियाउर्रहमान बर्क को बड़ी राहत दी है. निचली अदालत में चल रही कार्यवाही पर कोर्ट ने तत्काल रोक लगाते हुए राज्य सरकार से तीन सप्ताह में जवाब दाखिल करने को कहा है.

 एक नेता, एक चार्जशीट और एक संघर्ष 

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जियाउर्रहमान बर्क का नाम उत्तर प्रदेश की सियासत में नया नहीं है. वे न सिर्फ संभल लोकसभा से निर्वाचित जनप्रतिनिधि हैं, बल्कि एक ऐसे नेता भी हैं, जिनका दायरा सिर्फ वोटबैंक तक सीमित नहीं है. उन पर लगे आरोप - जो संभल हिंसा से जुड़े हैं - सिर्फ एक कानूनी केस नहीं, बल्कि यह उत्तर प्रदेश की साम्प्रदायिक राजनीति और पुलिस कार्यशैली पर भी गहरा सवाल खड़ा करते हैं.

बर्क ने हाईकोर्ट में चार्जशीट को चुनौती दी थी. उनका तर्क था कि यह मामला राजनीतिक द्वेष का नतीजा है और जांच प्रक्रिया निष्पक्ष नहीं रही. अदालत ने इस याचिका को गंभीरता से लेते हुए 9 सितंबर तक निचली अदालत की सभी कार्यवाहियों पर रोक लगा दी है.

 हाईकोर्ट का आदेश: राहत या राजनीति से विराम? 

इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस समीर जैन की बेंच ने सुनवाई करते हुए न केवल कार्यवाही पर रोक लगाई, बल्कि राज्य सरकार से सीधे जवाब भी तलब कर लिया. इसका अर्थ साफ है - कोर्ट इस मामले को सिर्फ एक रूटीन केस की तरह नहीं देख रहा. सवाल यह भी है कि क्या अदालत का यह रुख आने वाले वक्त में पुलिस की जांच और प्रशासनिक जवाबदेही के लिए एक नजीर बनेगा?

इस केस में बर्क की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता इमरान उल्ला और विनीत विक्रम सिंह ने दलीलें रखीं. इमरान उल्ला ने अदालत के समक्ष यह साफ किया कि चार्जशीट न केवल दुर्भावना से प्रेरित है, बल्कि इसमें कानूनी प्रक्रियाओं की भी अनदेखी की गई है.

 राजनीति की ज़मीन पर कानून की लड़ाई 

यह पहली बार नहीं है जब किसी विपक्षी नेता को दंगों या हिंसा के मामले में फंसाया गया हो. लेकिन सवाल यह है कि क्या देश की न्यायपालिका सियासत से प्रेरित आरोपों और तथ्यों में अंतर कर पा रही है? जियाउर्रहमान बर्क का केस इस बात की गवाही देता है कि अदालतें आज भी अगर चाहें तो सियासी एजेंडे के सामने कानूनी संतुलन बनाए रख सकती हैं.

 समय बताएगा – फैसला कितनी दूर? 

9 सितंबर को अगली सुनवाई होगी. तब तक कोई कानूनी कार्यवाही नहीं होगी. लेकिन सवाल यह है कि क्या इस दौरान राजनीति अपने नफे-नुकसान का हिसाब लगाना बंद करेगी? या फिर यह राहत आगे आने वाले चुनावी मौसम में एक और राजनीतिक मोहरा बन जाएगी?

इस पूरे प्रकरण में एक बात बिल्कुल स्पष्ट है - संभल की सड़कों से लेकर प्रयागराज के कोर्टरूम तक, यह सिर्फ एक केस नहीं बल्कि कानून और लोकतंत्र के रिश्ते की अग्निपरीक्षा है.

(रिपोर्ट- सैयद उवैस अली)

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