उन्होंने बचपन में स्कूल की किताबों में मदर टेरेसा के बारे में पढ़ा, तभी लगता था कि जीवन वही सार्थक है, जिसमें इंसान के पास एक खास मकसद हो। वह मदर टेरेसा की तरह बनने के सपने देखा करती थीं, लेकिन 10वीं पास करते ही उनके परिवार पर मुसीबतें टूट पड़ीं।
पहले भाई और फिर पिता का आकस्मिक निधन हो गया। वह अपने तीन भाई-बहनों और मां की अभिभावक बन गईं। दूसरे के खेतों में मजदूरी तक करनी पड़ी। संघर्ष करते हुए परिवार को संभाला, लेकिन जिम्मेदारियों के बीच बचपन में देखा गया सपना मरने नहीं दिया। तय कर लिया कि शादी नहीं करूंगी और उन्होंने अपनी जिंदगी एक मकसद के लिए समर्पित कर दी।
यह मकसद था - पेड़ लगाना और उनकी देखभाल करना। तब का दिन है और आज का दिन, तीन दशक गुजर गए और उन्होंने इस दौरान 30 लाख से ज्यादा पेड़ लगा दिए।
इनका नाम है चामी मुर्मू। झारखंड के सरायकेला-खरसावां जिले के राजनगर नामक कस्बे में रहने वाली 51 वर्षीया चामी मुर्मू उन विशिष्ट हस्तियों में शामिल हैं, जिन्हें भारत सरकार ने वन-पर्यावरण के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय कार्यों के लिए इसी वर्ष पद्मश्री सम्मान के लिए चुना है।
पेड़ लगाने और बचाने के व्यापक अभियान के चलते चामी मुर्मू अपने इलाके में लेडी टार्जन के नाम से मशहूर हैं। उनके इस अभियान से 30,000 से ज्यादा महिलाएं जुड़ी हैं। इस दौरान उन्होंने लकड़ी माफिया से संघर्ष किया। नक्सलियों की गतिविधियों और कई धमकियों के बाद भी उनका हौसला नहीं डिगा।
उन्होंने अभियान की शुरुआत 1988 में बगराईसाई गांव में 11 महिला सदस्यों के साथ मिलकर की थी। इलाके की बंजर जमीनों पर पेड़ लगाना शुरू किया। फिर राज्य सरकार की सामाजिक वानिकी योजना के तहत संस्था को मदद मिली और अंततः एक नर्सरी की शुरुआत हुई।
वह बताती हैं, एक लाख से अधिक पौधे लगाने के बाद 1996 में हमें एक बड़ा झटका लगा। गांव के दबंगों ने मेरे पूरे एक लाख पौधे नष्ट कर दिए। हमने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई और दोषियों को गिरफ्तार कर लिया गया। इस घटना के बाद भी हम विचलित नहीं हुए और हमने फिर से उसी जोश के साथ काम करना शुरू कर दिया।
चामी मुर्मू के इन प्रयासों की गूंज राज्य और केंद्र की सरकारों तक भी पहुंची। वर्ष 1996 में जब उन्हें इंदिरा गांधी वृक्ष मित्र पुरस्कार से सम्मानित किया गया तो उनकी चर्चा दूर-दूर तक होने लगी। उन्होंने गांव-गांव घूमकर महिलाओं को जागरूक किया। पेड़ लगाने के अभियान ने और गति पकड़ी। समूहों में महिलाएं निकलतीं और किसानों की खाली पड़ी जमीन, बंजर पड़ी जमीन, सड़क-नहर के किनारे पौधे लगाती हैं।
यह अभियान सरायकेला जिले के 500 गांवों तक फैल गया और 33-34 वर्षों में 720 हेक्टेयर जमीन पर 30 लाख पौधे लगा दिए गए। उन्होंने इस अभियान से जुड़ी महिलाओं को स्वरोजगार से भी जोड़ा। उनके जरिए 30,000 से अधिक महिलाएं स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) से जुड़ीं। इससे महिलाओं के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आया है। उन्हें 2019 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने नारी शक्ति पुरस्कार से नवाजा।
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Source : IANS