नई दिल्ली, 14 जुलाई (आईएएनएस)। हिंदी साहित्य के इतिहास में लक्ष्मण सिंह एक ऐसे साहित्यकार के रूप में जाने जाते हैं, जिन्होंने भारतेंदु युग से पूर्व हिंदी गद्य को नई दिशा और पहचान दी।
आगरा के वजीरपुरा में 9 अक्टूबर 1826 को जन्मे लक्ष्मण सिंह ने हिंदी को संस्कृति के अनुरूप बनाने का प्रयास किया, जिससे हिंदी साहित्य की नींव मजबूत हुई। उनकी साहित्यिक उपलब्धियों, समाज सुधार के प्रयासों और प्रशासनिक कुशलता ने उन्हें 19वीं सदी के प्रमुख साहित्यकारों में स्थापित किया।
लक्ष्मण सिंह की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई, जहां उन्होंने संस्कृत और उर्दू का अध्ययन किया। बाद में आगरा कॉलेज में अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त की और 1847 में पश्चिमोत्तर प्रदेश के लेफ्टिनेंट गवर्नर के कार्यालय में अनुवादक के रूप में नियुक्त हुए। उनकी प्रतिभा और कर्तव्यनिष्ठा ने उन्हें तहसीलदार और फिर अंग्रेजों की सहायता करने के लिए डिप्टी कलेक्टर का पद दिलाया।
इस योगदान के लिए उन्हें ‘राजा’ की उपाधि प्रदान की गई।
हालांकि, अंग्रेजी शासन की सेवा में रहते हुए भी उनका साहित्य के प्रति प्रेम कभी कम नहीं हुआ। उनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान हिंदी गद्य को समृद्ध करना रहा। उस समय हिंदी को साहित्यिक और आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता नहीं मिली थी।
लक्ष्मण सिंह ने हिंदी को संस्कृत के निकट लाकर उसकी शब्दावली और शैली को परिष्कृत किया। 1861 में उन्होंने आगरा से ‘प्रजा हितैषी’ नामक पत्रिका शुरू की, जो हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण कदम था। यह पत्रिका सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दों को उठाने का माध्यम बनी।
लक्ष्मण सिंह की साहित्यिक कृतियों में कालिदास की अमर रचनाओं का हिंदी अनुवाद विशेष रूप से उल्लेखनीय है। 1863 में उन्होंने ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ का अनुवाद ‘शकुंतला नाटक’ के नाम से प्रकाशित किया। इस अनुवाद में उनकी खड़ी बोली की शैली ने समकालीन साहित्यकारों को आश्चर्यचकित कर दिया। इस कृति को राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद ने अपनी ‘गुटका’ में स्थान दिया, और प्रसिद्ध हिंदी प्रेमी फ्रेडरिक पिन्काट ने इसे 1875 में इंग्लैंड में प्रकाशित करवाया।
यह कृति भारतीय सिविल सेवा की परीक्षा में पाठ्यपुस्तक के रूप में शामिल की गई, जिससे लक्ष्मण सिंह को अपार ख्याति मिली। इसके अतिरिक्त, 1877 में ‘रघुवंश’ और 1881-1883 में ‘मेघदूत’ का अनुवाद भी उन्होंने किया, जिसमें अवधी और ब्रजभाषा के शब्दों के साथ-साथ विभिन्न छंदों का सुंदर प्रयोग किया गया।
उनका मानना था कि हिंदी को अरबी-फारसी के प्रभाव से मुक्त रखकर संस्कृत और देशज बोलियों के आधार पर विकसित करना चाहिए। उनकी यह नीति हिंदी साहित्य को स्वतंत्र और समृद्ध बनाने में सहायक सिद्ध हुई।
समाज सुधारक के रूप में भी उन्होंने शिक्षा और संस्कृति के प्रचार-प्रसार में योगदान दिया। उनका जीवन और कार्य हिंदी साहित्य के लिए एक प्रेरणा है। उनका निधन 14 जुलाई 1896 को हुआ।
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