आईआईटी बॉम्बे के अध्ययन से पता चला कैसे टीबी बैक्टीरिया एंटीबायोटिक दवाओं को देते हैं 'धोखा'

आईआईटी बॉम्बे के अध्ययन से पता चला कैसे टीबी बैक्टीरिया एंटीबायोटिक दवाओं को देते हैं 'धोखा'

आईआईटी बॉम्बे के अध्ययन से पता चला कैसे टीबी बैक्टीरिया एंटीबायोटिक दवाओं को देते हैं 'धोखा'

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IANS
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IIT Bombay study shows how TB bacteria shield themselves from antibiotics, stay alive longer

(source : IANS) ( Photo Credit : IANS)

नई दिल्ली, 3 दिसंबर (आईएएनएस)। क्षय रोग (टीबी) दशकों से एक गंभीर वैश्विक स्वास्थ्य समस्या बना हुआ है। आईआईटी बॉम्बे ने इस पर एक स्टडी की है, जिससे पता चलता है कि माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस नामक जीवाणु अपनी ऊपरी फैट कोटिंग (वसा परत) को बदलकर एंटीबायोटिक उपचार से बचते-बचाते लंबे समय तक शरीर में बने रहते हैं।

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प्रभावी प्रतिजैविकों (एंटीबायोटिक्स) और व्यापक टीकाकरण अभियानों के बावजूद भी यह रोग मृत्यु का कारण बना हुआ है।

केवल 2023 वर्ष में दुनिया के लगभग 1 करोड़ से अधिक लोग टीबी से ग्रसित हुए और 12 लाख से अधिक लोगों की इससे मृत्यु हो गई। भारत में इसके संक्रमितों की तादाद सबसे ज्यादा है; यहां 2024 में 26 लाख से अधिक रोगी पाए गए।

केमिकल साइंस नामक जर्नल में प्रकाशित इस अध्ययन में इस बात की खोज की गई कि औषधि से अप्रभावित रहने का रहस्य जीवाणु की झिल्लियों (मेम्ब्रेन्स) में छिपा हो सकता है—ये झिल्लियां वसा (फैट्स) या लिपिड से बनी जटिल भित्तियां होती हैं जो कोशिका (सेल्स) की रक्षा करती हैं।

शोधदल ने जीवाणु को दो परिस्थितियों में संवर्धित किया: पहली वह सक्रिय अवस्था जब जीवाणु शीघ्रता से विभाजित हो रहे थे, जैसा कि सक्रिय संक्रमण में होता है, और दूसरी परिस्थिति, जो बाद में आनेवाली प्रसुप्त अवस्था (डॉर्मेंसी) होती है, जैसा कि अव्यक्त (लेटेंट) संक्रमणों में देखा जाता है।

जब शोधदल माइकोबैक्टीरियम स्मेग्मैटिस जीवाणु को टीबी की चार सामान्य औषधियों: रिफाब्यूटिन, मोक्सीफ्लोक्सासिन, अमीकासिन, और क्लैरिथ्रोमाइसिन के संपर्क में लाया तो पाया कि जीवाणु की 50 फीसदी वृद्धि को रोकने के लिए आवश्यक औषधियों की सांद्रता (कंसंट्रेशन) सक्रिय जीवाणु की तुलना में प्रसुप्त जीवाणु में दो से दस गुना अधिक थी।

आईआईटी-बी के रसायनशास्त्र विभाग की प्रोफेसर शोभना कपूर ने इसे समझाते हुए कहा, “इसका अर्थ ये है कि वही औषधि जो रोग के प्रारंभिक चरण में प्रभावी थी की ज्यादा मात्रा प्रसुप्त टीबी कोशिकाओं को मारने के लिए आवश्यक हो गई। यह परिवर्तन जेनेटिक उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) के कारण नहीं हुआ था, जो सामान्यतः एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस में होता है।”

औषधि के प्रति घटी संवेदनशीलता (ड्रग सेंसिटिविटी) जीवाणु की प्रसुप्त अवस्था और संभवतः उनकी झिल्ली की परतों से जुड़ी हो सकती है, न कि जीनीय परिवर्तनों से।

शोधकर्ताओं ने ‘अडवांस्ड मास स्पेक्ट्रोमेट्रीमेट्री ’ नामक तकनीक का उपयोग कर जीवाणु झिल्लियों में 270 से अधिक विशिष्ट लिपिड अणुओं (लिपिड मॉलिक्यूल्स) की पहचान की।

पाया गया कि सक्रिय जीवाणुओं की झिल्लियां शिथिल तथा तरल थीं,जबकि प्रसुप्त जीवाणुओं में कठोर, संगठित संरचनाएं थीं।

कपूर ने कहा, “लोग दशकों से प्रोटीन के दृष्टिकोण से टीबी का अध्ययन करते आ रहे हैं, परंतु लिपिड को लंबे समय तक निष्क्रिय घटक माना जाता था। अब हमें पता चला है कि जीवाणु को जीवित रहने और औषधियों का प्रतिरोध करने में लिपिड सक्रिय भूमिका निभाते हैं।”

शोधदल ने आगे यह परिक्षण किया कि रिफाब्यूटिन सक्रिय कोशिकाओं में तो आसानी से प्रवेश कर सकता है, परंतु प्रसुप्त कोशिकाओं की बाह्य (बाहर) झिल्ली को पार करना उसके लिए कठिन है।

प्रसुप्त जीवाणु के बारे में बताते हुए प्रो. कपूर कहती हैं, “झिल्ली का कठोर बाह्य आवरण मुख्य बाधा बन जाता है। यह जीवाणु की रक्षा की पहली और सबसे शक्तिशाली सुरक्षा रेखा है।

एंटीबायोटिक्स को धोखा देने वाली बाह्य झिल्ली को दुर्बल करने से उनके असर को बढ़ाया जा सकता है।

प्रो. कपूर कहती हैं, “यदि पुरानी औषधियों को भी एक ऐसे अणु के साथ संयोजित किया जाए जो बाह्य झिल्ली को शिथिल कर दे, तो इन औषधियों का प्रभाव अधिक अच्छा हो सकता है।” यह दृष्टिकोण जीवाणु को स्थायी रूप से प्रतिरोध (पर्मनंट रेजिस्टेंस) विकसित करने का अवसर दिए बिना, उन्हें फिर से औषधियों के प्रति संवेदनशील बना सकता है।

--आईएएनएस

केआर/

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