अपने बच्चे के हाथ से अभी छीन लें मोबाइल, उसे दबोच रही है यह बीमारी, जिसका कोई इलाज नहीं
अगर आपका लाडला मोबाइल (Mobile) ऑपरेट करने में आप ज्यादा एक्सपर्ट (expert) है तो उस पर गर्व करने बजाय आपको सतर्क हो जाना चाहिए.
नई दिल्ली:
अगर आपका लाडला मोबाइल (Mobile) ऑपरेट करने में आप ज्यादा एक्सपर्ट (expert) है तो उस पर गर्व करने बजाय आपको सतर्क हो जाना चाहिए. आपके बच्चे के हाथ में हर समय रहने वाला मोबाइल फ़ोन, टीवी (TV) का रिमोट, टैब (Tabs), कंप्यूटर (Computer) जैसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण न केवल उससे उसका बचपन छीन रहे हैं बल्कि एक ऐसी बिमारी की ओर उसे धकेल रहे हैं जिससे छुटकारा पाना आसान नहीं है.जरूरत है आपको समय से पहले सावधान होने की ताकि आपके लाडले की सेहत दुरुस्त रहे. आइये आपको बताते हैं इन इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के क्या हैं दुष्प्रभाव और बचाव के तरीके..
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आज मोबाइल (Mobile) , टीवी (TV), कंप्यूटर और वीडियो गेम (Video Game) ने जहां जिंदगी को आसान बना दिया है वहीं इनकी वजह से कई सारी दुश्वारियां भी पैदा हो गईं है. ये चीजें हमारे रोजमर्रा की ज़िन्दगी का अहम् हिस्सा बन चुकीं हैं. इनके बिना जीवन अधूरा लगता है. बड़ों के लिए ये उपकरण उनके काम का हिस्सा तो है ही बच्चों के लिए भी या उतना ही जरूरी हो गया है, लेकिन इन उपकरणों (Gagets) के प्रति बच्चों में बढ़ती दीवानगी ठीक नहीं है. लगातार टीवी (TV), कंप्यूटर (Computer), मोबाइल (Mobile) के साथ वक़्त बिताने वाले बच्चों को एक ऐसी बीमारी (digital dementia 2018) जकड़ रही है जिसका इलाज सिर्फ उनके अभिभावकों के हाथ में है.
इंडियन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक एसोसिएशन के वाइस प्रेसिडेंट रह चुके डॉ अतुल अग्रवाल कहते हैं कि मोबाइल, टीवी, कंप्यूटर के दीवाने बच्चे आजकल डिजिटल डिमेंशिया (digital dementia 2018) का शिकार हो रहे हैं. दरअसल फोन, लैपटॉप, टैब में खोये रहने वाले अधिकतर बच्चे कार्टून (Cartoon) देखते हैं. डोरेमॉन (Doremon), छोटा भीम (Chhota Bheem), सिन चैन (sin chain), डायनासोर किंग (Dynsore King),पोकेमोन (Pokemon), अल्ट्रा बी (Ultra B) जैसे सैकड़ों एनिमेटेड फिल्में बच्चों के दिमाग पर गहरा असर डाल रही हैं.
इन फिल्मों के कैरेक्टर बच्चों के दिमाग पर हर वक़्त छाए रहते हैं. इसकी वजह से बच्चे अपनी न तो पढ़ाई और न ही रोजमर्रा के कामों पर अपना ध्यान केंद्रित कर पाते हैं. वो अक्सर कार्टून के कैरेक्टर की तरह व्यवहार करने लगते हैं. क्रिकेट, फुटबाल जैसे खेलों के प्रति उनकी रूचि घटती जाती है. आस पड़ोस के बच्चों से भी वो मिलना जुलना काम करने लगते हैं और इसका नतीजा ये होता है कि उनको चीजें याद नहीं रहतीं. भूलने की बिमारी उन्हें इसी उम्र से शुरू हो जाती है.
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चाइल्ड साइक्लॉजिस्ट सिमरनजीत कौर का कहना है कि गैजेट्स की लत से बच्चों में अवसाद, एंग्जाइटी, बाइपोलर डिसऑर्डर, डिमेंशिया, उन्माद और असामान्य व्यवहार जाना सामान्य बात है. इन बीमारियों के शिकार बच्चों का व्यवहार हिंसात्मक होता है. अपने भाई बहनो पर वो छोटी छोटी बात पर चिल्लाते हैं.लगातार मोबाइल, टीवी, लैपटॉप, टैब का इस्तेमाल करने से बच्चों की आँखे कमजोर होने लगती हैं. इनकी आंखें सूखने लगती हैं और नज़र भी कमजोर होने लगती है. शारीरिक श्रम वाले खेलों से दूर रहने की वजह से आगे चलकर इन बच्चों में डायबिटीज का खतरा बढ़ जाता है.
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उपाय
- बेहतर होगा कि बच्चों के सामने काम से काम गैजेट्स का इस्तेमाल करें
- बच्चों को ये चीजे तभी दें जब वास्तव में इसकी उसे जरूरत हो
- गैजेट्स देने से पहले उसे देखने की समय सीमा निर्धारित करना न भूलें
- किसी भी कीमत पर बच्चे की जिद के आगे न झुकें
- शाम को साथ किसी पार्क में जाएं और कोई शारीरिक श्रम वाला खेल खेलें
गेमिंग एडिक्शन से ऐसे बचें
- आमतौर पर थेरेपी के लिए मनोवैज्ञिक के पास जाना पड़ता है और दवाइयों से इलाज के लिए मनोचिकित्सक के पास.
- WHO के आकंड़ो के मुताबिक इस बीमारी के शिकार 10 में से एक मरीज़ को अस्पताल में रह कर इलाज कराने की ज़रूरत पड़ सकती है.
- आम तौर पर 6-8 हफ्तों में ये गेमिंग एडिक्शन की लत छूट सकती है.
- डॉक्टरों के मुताबिक गेमिंग की आदत न पड़ने देना ही इससे बचने का सटीक उपाय है.एडिक्शन के बाद इलाज कराना ज़्यादा असरदार नहीं है.
- बच्चों को मोबाइल हाथ में देने से पहले एक बार जरूर सोचें
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