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नई दिल्ली, 8 सितंबर (आईएएनएस)। हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम, वो कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती, ये शायरी है अकबर इलाहाबादी की, जो उर्दू साहित्य के एक ऐसे शायर थे जिन्होंने अपनी बेबाकी, हास्य-व्यंग्य और हिंदुस्तानी तहजीब को अपनी शायरी में बखूबी पिरोने का काम किया।
अकबर की शायरी जमाने और जिंदगी के बीच का आईना तो दिखाती ही है। साथ ही रिश्तों की डोर को शायराना अंदाज में बताने का तरीका भी निराला है। अकबर इलाहाबादी लिखते हैं, अकबर दबे नहीं किसी सुल्तां की फौज से, लेकिन शहीद हो गए बीवी की नौज से, जो उनकी बेबाकी को बयां करती है।
अकबर इलाहाबादी का पूरा नाम सैयद अकबर हुसैन रिजवी था। उनका जन्म 16 नवंबर 1846 को इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में हुआ। उनके पिता तफज्जुल हुसैन नायब तहसीलदार थे। अकबर की शुरुआती शिक्षा घर पर हुई और महज 9 साल की उम्र में ही उन्होंने अरबी और फारसी की किताबें पढ़ ली थीं। बाद में उनका दाखिला मिशन स्कूल में कराया गया, लेकिन पारिवारिक आर्थिक तंगी के कारण 15 साल की उम्र में उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ा।
जिंदगी के इस उतार-चढ़ाव भरे सफर में अकबर के लिए शायरी संजीवनी बूटी बनकर आई। अकबर इलाहाबादी ने महज 21 साल की उम्र में अपने पहले मुशायरे में दो लाइनें कही थीं, जिसे सुन हर कोई उनकी शायरी का मुरीद हो गया। उन्होंने कहा था, समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का, अकबर ये गजल मेरी है अफसाना किसी का।
अकबर ने रिश्तों और परिवार की जिम्मेदारी को एक साथ संभालने का प्रयास भी किया। कम उम्र में ही उनकी शादी खदीजा खातून नाम की एक लड़की से हो गई, लेकिन यह रिश्ता उन्हें पसंद नहीं आया। बाद में उन्होंने एक तवायफ, बूटा जान, से दूसरी शादी की, लेकिन उनका जल्दी देहांत हो गया, जिससे अकबर को गहरा सदमा पहुंचा।
इन सबके बावजूद अकबर ने उर्दू शायरी को जारी रखा और उन्होंने हिंदुस्तानी जुबान की मिठास को शायरी के जरिए बरकरार रखने का काम किया। उन्होंने व्यंग्य की एक नई शैली को लोकप्रिय किया। उन्होंने खींचो न कमानों को न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो या फिर हंगामा है क्यूं बरपा थोड़ी सी जो पी ली है, डाका तो नहीं मारा चोरी तो नहीं की है जैसे मशहूर शेर लिखें। उनकी शायरी सरल, सहज और गहरे अर्थों से भरी है। वे हल्के-फुल्के अंदाज में गंभीर मुद्दों को उठाने में माहिर थे।
अकबर ने कम उम्र में रेलवे ठेकेदार के यहां नौकरी शुरू की, जो जल्द ही समाप्त हो गई। इसके बाद उन्होंने अंग्रेजी में महारत हासिल की और 1867 में वकालत का इम्तिहान पास किया। तीन साल तक वकालत करने के बाद वे हाईकोर्ट में मिसिल खवां (रिकॉर्ड रीडर) बने। इस दौरान उन्होंने अदालती कार्यवाहियों और जजों-वकीलों के व्यवहार को गहराई से समझा। 1873 में हाईकोर्ट की वकालत का इम्तिहान पास करने के बाद उनकी नियुक्ति मुंसिफ के पद पर हुई। 1888 में वे सबऑर्डिनेट जज और फिर खुफिया अदालत के जज बने। अलीगढ़ सहित कई स्थानों पर तबादलों के बाद 1905 में वे सेशन जज के पद से सेवानिवृत्त हुए।
रिटायरमेंट के बाद उन्होंने बाकी का जीवन भी इलाहाबाद में बिताया। लगातार बीमारियों और व्यक्तिगत दुखों से जूझते हुए अकबर इलाहाबादी का 9 सितंबर 1921 को इलाहाबाद में निधन हो गया।
--आईएएनएस
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