Doctors' Strike: डॉक्टर साहब आपकी लड़ाई भी सही है, लेकिन हमारा भी तो ख्याल करें 'हुजूर'
अगर हक की लड़ाई की बता की जा रही है को ऐसे लोगों के लिए हक की लड़ाई कौन लड़ेगा जो डॉक्टरों की लापरवाही के कारण अपना सब कुछ खो बैठते हैं
नई दिल्ली:
बचपन में एक सबक सीखा था जो आज तक मेरी जिंदगी का सच बना हुआ है. वो सबक था- अपने हक के लिए लड़ना और तब तक लड़ना जब तक आप अपने हक को पा ना लो.. लेकिन इस के साथ एक और सबक भी सीखा था कि अगर उस हक की लड़ाई में किसी निर्दोष के साथ गलत हो रहा है तो इस बात को समझना कि शायद मेरा लड़ने का तरीका गलत है और मुझे इस लड़ाई को किसी और तरह जारी रखना चाहिए. यही हाल इस वक्त देश में डॉक्टरों का है जो कहने को तो अपने अधिकार के लिए,अपनी सुरक्षा के लिए लड़ रहे हैं लेकिन अब उसका असर कहीं और ही देखने को मिल रहा है.
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कोलकात में शुरू हुई छोटी सी हड़ताल धीरे-धीरे इतना विकराल रूप ले लेगी की इसका पूरा खामियाजा निर्दोष जनता को भुगतना पड़ेगा, इसका अंदाजा किसी ने नहीं लगया था. ये पूरा मामला शुरू हुआ सोमवार से जहां एक 70 साल के मरीज की मौत का जिम्मेदार एक जूनियर डॉक्टर को मानकर उन्हें बुरी तरह पीटा गया. सोमवार शाम कोलकाता के सेठ सुखलाल कर्णी मेमोरियल हॉस्पिटल में एक 70 साल की मरीज की मौत हो गई थी. पीड़ित परिवार वालों ने मौत का जिम्मेदार डॉक्टर को बताया. इतना ही नहीं अगले दिन यानी मंगलवार को दर्जनभर मोटरबाइक सवार लोग अस्पताल पहुंचे और वहां मौजूद डॉक्टर पर हमला कर दिया. हमलावरों ने रेजिडेंट डॉक्टर को इतनी बेरहमी से पीटा की उसका सिर फट गया और वो गंभीर रूप से जख्मी हो गया. इस पूरी घटना के बाद शुरू हुआ विरोध प्रदर्शन का दौर. डॉक्टरों की सुरक्षा को लेकर सवाल उठने लगे. हड़ताल को दो दिन हो चुके थे जब मुख्य मंत्री ममता बनर्जी ने सेठ सुखलाल करनानी मेमोरियल (एसएसकेएम) राजकीय अस्पताल का दौरा किया और इसके बाद से ये प्रदर्शन बढ़ता गया. पहले पूरे पश्चिम बंगाल और फिर धीरे-धीरे देश के सभी राज्यों में इस हड़ताल की आंच फैलने लगी. सभी डॉक्टर एक जुट हो कर जूनियर डॉक्टर के साथ हुई हिंसा का विरोध कर रहे थे और इंसाफ की मांग कर रहे थे.
क्या हक के लिए ऐसी लड़ाई जायज है?
शुरुआत में ये हड़ताल जायज लग रही थी क्योंकि जूनियर डॉक्टर के साथ जो हुआ था वो वाकई ठीक नहीं था और इसके लिए दोषियों को सजा मिलनी जरूरी थी. लेकिन धीरे-धीरे जब ये हड़ताल आगे बढ़ती गई तो मन में कुछ सवाल उठने शुरू हुए. सवाल डॉक्टरों की लड़ाई पर नहीं था पर लड़ने के तरीके पर था. दरअसल जैसे-जैसे सभी राज्यों से डॉक्टरों के हड़ताल पर जाने की खबर आ रही थी, सवाल उठ रहा था कि उन मरीजों का क्या जो बीमार है और उन्हें इलाज की सख्त जरूरत है क्योंकि इस पूरे बवाल में उनका कोई दोष नहीं था.
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फिर ये खबर भी आने लगी की डॉक्टर हड़ताल पर तो हैं लेकिन अस्पताल की एमरजेंसी सुविधाएं चालु हैं, लेकिन एक हफ्ते बाद यानी सोमवार आते-आते इस स्थिति से भी पर्दा उठने लगा. हड़ताल के चलते लखनऊ के केजीएमयू के ट्रामा सेंटर के इमरजेंसी में भी इलाज नहीं हो पा रहा है. इमरजेंसी के बाहर स्ट्रेचर पर मरीजों की लंबी कतार लगी है. ओपीडी में आने वाले गंभीर मरीज ट्रॉमा सेंटर पहुंच रहे हैं. ट्रामा सेंटर में अंदर से लेकर बाहर तक मरीजों की खचाखच भीड़ है. मरीजों का ये हाल सिर्फ एक शहर में नहीं बल्कि कई शहरों में है. कानपुर में तो डॉक्टर अपनी मांगों को मनवाने के लिए गुंडागर्दी पर उतर आए हैं. जानकारी के मुताबिक मेडिकल कॉलेज में डॉक्टर ने इमरजेंसी में मरीजों को देखने से मना कर दिया. इतना ही ना हीं नहीं गंभीर हालत में आ रहे मरीजों को भी बाहर निकाल दिया गया, नतीजन एक मरीज की मौत हो गई. अब एक और सवाल इस मरीज की मौत की जिम्मेदारी कौन लेगा? क्या पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जिन्होंने इतने दिनों तक इस पूरे बवाल पर चुप्पी साधे रखी, या वो डॉक्टर जो अपनी मांगे मनवाने में इतने मशगूल हो गए की कब डॉक्टर से हत्यारे बन बैठे उन्हें खुद पता नहीं चला...
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हक की आवाज तो अब भी उठनी चाहिए थी...
अब जब अधिकारों की और सुरक्षा की लड़ाई के लिए बात हो ही रही है तो सिर्फ एक तरफा क्यों हो, दोनों तरफा होनी चाहिए. कुछ दिनों पहले अहमदाबाद से खबर आई थी कि एक नर्स ने 5 महीने की बच्ची के हाथ से पट्टी काटते हुए उसका अंगूठा ही काट डाला था. दूसरा मामला जयपुर का है जहां अस्पताल में एक डॉक्टर मरीज को पीटते हुए नजर आया. इस घटना की वीडियो भी सोशल मीडिया पर काफी वायरल हो रही है. हाल ही में गुरुग्राम से भी एक ममाला सामने आया था जिसमें एक डॉक्टर के गलत इंजेक्शन लगाने की वजह से माता-पिता ने अपनी 10 साल की बच्ची को खो दिया. इसके अलावा टॉर्च की रौशनी में मरीजों का ऑपरेशन करने के भी मामले लोगों ने सुने हुए हैं और ऐसे मामले भी सुने होंगे जब डॉक्टरों की फीस मरीजों के दर्द से बड़ी हो जाती है. अगर हक की लड़ाई की बता की जा रही है को ऐसे लोगों के लिए हक की लड़ाई कौन लड़ेगा जो डॉक्टरों की लापरवाही के कारण अपना सब कुछ खो बैठते हैं.
इन सब हालातों को देखते हुए अब आम लोगों का भी यही कहना है कि आप अपने हक के लिए लड़ाई लड़िए बेशक लड़िए लेकिन ये भी याद रखिए कि जनता आपको भगवान मानती है. क्या आप अपने हक की लड़ाई में कहीं निर्दोषों के साथ कुछ गलत तो नहीं कर रहे ये सोचना आपक काम है.
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