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Fact Check: नहीं! वीर सावरकर ने सजा से बचने के लिए अंग्रेजों से माफी नहीं मांगी

इतिहासकार और लेखक विक्रम संपथ ने सावरकर की आत्मकथा लिखी है. उन्होंने अपनी किताब 'सावरकर- इकोज़ फ्रॉम अ फॉरगॉटन पास्‍ट' में सावरकर के जीवन के कई अनछुए पहलुओं को उजागर किया है.

Updated on: 18 Oct 2019, 01:55 PM

नई दिल्ली:

महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के लिए बीजेपी ने अपने घोषणापत्र में विनायक दामोदर सावरकर यानी वीर सावरकर को भारत का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान भारत रत्न देने की घोषणा की है. इसी के साथ राजनीतिक पार्टियों में भी चर्चा का माहौल गर्म हो गया है. सावरकर का समर्थन करने वाले जहां उनकी देश भक्ति का गुणगान करते हैं तो वहीं उनके आलोचक अंग्रेजों के सामने लिखे गए उनके माफी नामे को लेकर आलोचना करते हैं. ऐसे में सवाल ये उठता है कि आखिर सावरकर का ये माफीनामा था क्या जिसे लेकर कांग्रेस लगातार इसकी आलोचना करती है और क्या वाकई सावरकर ने जेल से छूटने के लिए अंग्रेजों से माफी मांगी थी?

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क्या है कांग्रेस के दावों का सच?

इतिहासकार और लेखक विक्रम संपथ ने सावरकर की आत्मकथा लिखी है. उन्होंने अपनी किताब 'सावरकर- इकोज़ फ्रॉम अ फॉरगॉटन पास्‍ट' में सावरकर के जीवन के कई अनछुए पहलुओं को उजागर किया है. इसमें अंग्रेजों को लिखी गई दया याचिका (British congress apology) पर भी विस्तार से चर्चा की गई है. सावरकर को लेकर यह बहुत बड़ा भ्रम फैलाया जाता है कि उन्होंने दया याचिका दायर कर अंग्रेजों से माफी मांगी थी. सच तो यह है कि ये कोई दया याचिका नहीं थी, ये सिर्फ एक याचिका थी. जिस तरह हर राजबंदी को एक वकील करके अपना मुकदमा लड़ने की छूट होती है उसी तरह सारे राजबंदियों को याचिका देने की छूट दी गई थी. वे एक वकील था जो उन्हें पता था कि जेल से छूटने के लिए कानून का किस तरह से इस्तेमाल कर सकते हैं.

उनको 50 साल का आजीवन कारावास सुना दिया गया था, तब वह 28 साल के थे. अगर सावरकर जिंदा वहां से लौटते तो 78 साल के हो जाते. इसके बाद क्या होता? न तो वह परिवार को आगे बढ़ा पाते और न ही देश की आजादी की लड़ाई में अपना योगदान दे पाते. उनकी मंशा थी कि किसी तरह जेल से छूटकर देश के लिए कुछ किया जाए. 1920 में उनके छोटे भाई नारायण ने महात्मा गांधी से बात की थी और कहा था कि आप पैरवी कीजिए कि कैसे भी ये छूट जाएं. गांधी जी ने खुद कहा था कि आप बोलो सावरकर को कि वह एक याचिका भेजें अंग्रेज सरकार को और मैं उसकी सिफारिश करूंगा. गांधी ने लिखा था कि सावरकर मेरे साथ ही शांति के रास्ते पर चलकर काम करेंगे तो इनको आप रिहा कर दीजिए. ऐसे में याचिका की एक लाइन लेकर उसे तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है.

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सावरकर ने पहली याचिका काला पानी की सजा काटने के डेढ़ महीने में यानी 29 अगस्त को लिखी. इसके बाद 9 सालों में उन्होंने 6 बार अंग्रेज़ों को माफ़ी पत्र दिए. बाद में सावरकर ने खुद और उनके समर्थकों ने अंग्रेज़ों से माफ़ी मांगने को इस आधार पर सही ठहराया था कि ये उनकी रणनीति का हिस्सा था, जिसकी वजह से उन्हें कुछ रियायतें मिल सकती थीं. सावरकर ने अपनी आत्मकथा में लिखा था, 'अगर मैंने जेल में हड़ताल की होती तो मुझसे भारत पत्र भेजने का अधिकार छीन लिया जाता.' इसी बात को सावरकर के खिलाफ इस्तेमाल में लिया गया. कुछ लोग तर्क देते हैं कि भगत सिंह के पास भी माफ़ी मांगने का विकल्प था, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. तब सावरकर के पास ऐसा करने की क्या मजबूरी थी? इसे ऐसा समझा जा सकता है कि भगत सिंह और सावरकर में बहुत मौलिक अंतर है. भगत सिंह ने जब बम फेंका तो वह वहां से भागे नहीं. उसी दिन उन्होंने तय कर लिया था कि उन्हें फांसी का फंदा चाहिए. दूसरी तरफ़ वीर सावरकर एक चतुर क्रांतिकारी थे. उनकी कोशिश थी कि भूमिगत रह कर देश की आजादी के लिए काम किया जाए. सावरकर इस पचड़े में नहीं पड़े कि उनके माफ़ी मांगने पर लोग क्या कहेंगे. उनकी सोच ये थी कि अगर वह जेल के बाहर रहेंगे तो वह जो करना चाहेंगे, वह कर सकेंगे.