Shakeel Badayuni Birthday Special : शकील बदायूं जिनकी कलम से मचलते अरमान नहीं बल्कि सुलगते अरमान निकले

शकील की शायरी को आम शायरी नहीं थी बल्कि वह तो अंदाज़े फ़िक्र में सिमटे हुए आसमान को कलम से कैद कर लेते थे।

शकील की शायरी को आम शायरी नहीं थी बल्कि वह तो अंदाज़े फ़िक्र में सिमटे हुए आसमान को कलम से कैद कर लेते थे।

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sankalp thakur
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Shakeel Badayuni Birthday Special : शकील बदायूं जिनकी कलम से मचलते अरमान नहीं बल्कि सुलगते अरमान निकले

शकील बदायूं (फोटो- रमेश नेगी/ न्यूज स्टेट)

शकील बदायूं एक ऐसे गीतकार जिनके लिखे बोल जो भी सुनता वह उसी में खो जाता है। शकील बदायूं जिनके गीतों, ग़ज़लों और नज्मों में समन्दर सी गहराई है। मोहम्मद जमाल अहमद सोखता कादरी के घर 3 अगस्त 1914 को पैदा हुए शकील अहमद ही बाद में शकील बदायूं के नाम से मशहूर हुए।

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शकील के पिता खुद एक शायर थे इसलिए उन्हें घर में ही शायराना माहौल मिला। साल 1930 में महज 16 साल की उम्र में ही उन्होंने शायरी लिखना शुरू कर दिया। बचपन से ही शकील मियां बड़ी तसल्ली से उर्दू से लेकर अंग्रेजी तक अलग-अलग ज़बानों का जायका चखते रहे और फिर एक दिन सबके जबान का जायका बन गए।

शकील की शायरी कोई आम शायरी नहीं थी बल्कि वह तो अंदाज़-ए-फ़िक्र में सिमटे हुए आसमान को कलम से कैद कर लेते थे। शकील की शायरी वहां नहीं होती थी जहां अरमान मचलते थे बल्कि उनकी शायरी वहां होती थी जहां अरमान सुलगते थे।

उनकी शायरी की कशिश ही है कि उर्दू ग़ज़ल के 'इमाम' कहे जाने वाले ज़िगर मुरादाबादी भी उनके लफ्जों के मुरीद थे। दिल की भट्टी में जब लफ्ज सुलगते है तो जो पक कर निकलता है उसे शकील की शायरी कहते हैं।

अब तो ख़ुशी का ग़म है न ग़म की ख़ुशी मुझे
बे-हिस बना चुकी है बहुत ज़िंदगी मुझे

उनके लिखे हुए गीत को जब नौशाद ने सजाया तो दीदार (1951), बैजू बावरा (1952), मदर इन्डिया (1957), मुगल-ए-आज़म (1960), दुलारी (1949), शबाब (1954), गंगा यमुना (1961) जैसी फिल्में बनी। उनके शब्द को जब रवि ने अपने संगीत से सजाया तो 'हे घराना, चौदहवीं का चांद (1960) जैसी फिल्में बनी।  उनके शब्द जब हेमन्त कुमार के संगीत में मिले तो साहिब बीबी और ग़ुलाम (1962) जैसे फिल्म बनी। उन्होंने कुल 89 फिल्मों के लिए गीत लिखा था। इसके अलावा उन्होंने बहुत सारे ग़ज़लें भी लिखी जिसे कई गजल गायकों ने गाया।

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ऐ मोहब्बत तिरे अंजाम पे रोना आया
जाने क्यूं आज तिरे नाम पे रोना आया

शकील 1944 में मुम्‍बई गए थे, वहां नाम कमाया, शौहरत पाई और फिर दुनिया को अल्फाज़ की दौलत देकर 20 अप्रैल 1970 को वहीं से ही दुनिया को अलविदा कह दिया।

Source : Sankalp Thakur

Shakeel Badayuni
      
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