ज़िंदगी के एहसास को नज़्मों में जो पिरोए उसे गुलज़ार कहते हैं। जिसकी ग़ज़ल पढ़ कर लगे कि ज़िंदगी झांक रही है उसे गुलज़ार कहते हैं। जो लेखन, निर्देशन, गीत, ग़ज़ल, नज़्म और संवाद लेखन जैसे कई कलाओं में गुलज़ार हो उसे गुलज़ार कहते हैं। रूमानी रोमान्स और रुहानी रोमान्स में फ़र्क़ बताने वाले को गुलज़ार कहते हैं। जिसकी नज़्मों में अहसास इस तरह नज़ाकत के साथ सिमट जाता हो जैसे चांदनी में छिपी आफताब की किरणें, तो उसे गुलज़ार कहते हैं। जिसके हर शब्द से मिट्टी की सौंधी ख़ुशबू और जिंदगी के ऐहसास की महक आए उसे गुलज़ार कहते हैं।
आंखों पर काले फ्रेम का चश्मा और शरीर पर सफ़ेद कुर्ता पहने जब वह चलते हैं तो लगता है जैसे कोई मुक्कमल नज़्म चल रही हो। साधारण बात भी जब उनकी ज़ुबां से निकलती है तो लगता है उनकी ज़िंदगी शायरी में डूबी है। वह ज़िंदगी के किसी भी पहलू को लिखें उसमें से ख़ुशबू आती है। मन के दायरों से जब-जब कोई ऐहसास झांकती है तब-तब गीत, नज़्म, ग़ज़ल पन्नों पर उतर आती है।
हर व्यक्ति को एक नाम दिया जाता है और एक नाम वह ख़ुद बनाता है। जो नाम घरवालों ने दिया वह था संपूर्ण सिंह कालरा पर जिस नाम से दुनिया उन्हें जानती है वह है गुलज़ार।
गुलज़ार साहब कहते हैं कि हर इंसान पहला रोमान्स सिर्फ़ अपने-आप से करता है। यह बात सही भी है तभी गुलज़ार के पास ज़िन्दगी के हर पहलू को पिरोने के लिए शब्द रूपी फूल हैं। बचपन के पहलू को 'लकड़ी की काठी, काठी पर घोड़ा, घोड़े की दुम पर मारा हथौड़ा, दौड़ा-दौड़ा घोड़ा दुम उठाकर दौड़ा' में तो कभी 'जंगल जंगल बात चली है पता चला है' में दर्शाया तो जवानी के इश्क़ के बारे में कहा कि 'इश्क़ वो ख़ुशबू है जो फैलती है दोनों के लिए, जिसमें यार भी वही है और आशिक़ भी वही।'
ग़ालिब और अमीर खुसरो को अपनी लेखनी में उतारा
गुलज़ार साहब ख़ुद को ग़ालिब का मुलाज़िम बताते हैं। वह अक्सर लोगों को बल्लीमारान की ‘गली क़ासिम जान’ में एक बार जाने की बात कहते हैं। उन्होंने कई बार कहा है कि वह ग़ालिब की पेंशन खा रहे हैं। उन्होंने ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ टीवी धारावाहिक भी बनाया।
जिस तरह उनका रिश्ता ग़ालिब से है उसी तरह अमीर खुसरो से भी। खुसरो की ग़ज़ल का मतला 'जिहाले मिस्कीं मुकुन तगाफुल दुराए नैना बनाये बतियां' को आधार बना कर गुलामी फिल्म में 'जिहाले मिस्कीं मुकुन ब रंजिश बहाले हिज्र बेचारा दिल है' लिखा। ऐसे ही कई शायरों की विरासत को नए अंदाज में पेश किया है गुजजार साहब ने।
कहां से हुई फिल्मों में गीत लिखने की शुरुआत
1963 में आई फिल्म बन्दिनी का गाना 'मोरा गोरा अंग लइ ले, मोहे श्याम रंग दई दे' से अपने गीत के सफर की शुरुआत करने के बाद गुलज़ार ने कई बेहतरीन नगमें दिए। ‘कोई होता जिसको अपना’ ‘मुसाफिर हूं यारों’ ‘इस मोड़ से जाते है' हमने देखी है इन आंखों की महकती ख़ुशबू’ ‘नाम ग़ुम जायेगा’, ‘यारा सीली सीली विरह की रात का जलना' 'चप्पा चप्पा चरखा चले’ ‘एक सूरज निकला था’ ‘कजरारे कजरारे' जैसे गाने लोगों के दिल में बसे हैं।
जिंदगी देखना हो गुलजार की निर्देशित फिल्में देखिए
1971 में गुलज़ार ने फिल्म 'मेरे अपने' से निर्देशन के क्षेत्र में कदम रखा। इस फिल्म में गुलज़ार ने ज़माने की आबो-हवा के बीच रिश्तों के पतन को बड़े असरदार तरीके से पेश किया। पहली फिल्म से गुलज़ार ने निर्देशक के तौर पर असरदार उपस्थिति दर्ज कराई।
इसके बाद उन्होंने परिचय, किताब, कोशिश, अंगूर ,मौसम ,नमकीन ,किनारा ,लेकिन ,माचिस और हु तू तू जैसी कई फिल्मों का निर्देशन किया। अपनी लगभग सभी फिल्मों में गुलज़ार रिश्तों की भूलभुलैया का ओर -छोर ढूंढते नजर आये जो शायद उनकी निजी जिंदगी के दुखों से निपटने की कोशिश रही होगी।
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कुछ तो ज़रूर है आपके शब्दों में कि हर वो शख्स जिसने भूले से भी पढ़ा है आपको उसे आपकी आदत लग गई। आपकी नज्में ऊंगली थामे जिंदगी के हर मोड़ पर मिल जाती हैं। कभी बचपन के भेष में, कभी यादों के देश में। आपकी रूहानी आवाज़ सुनकर नैना ठगने लगते हैं तो कभी जगते जादू फूंकती हैं कभी नींदे बंजर कर देती हैं।
लफ्ज़ों के जादूगर गुलज़ार को जितने अच्छे लेखक हैं उतने ही सरल और सफल इंसान जो ख़ुद की नुमाइश नहीं करते, जग उनकी ख़ूबियां एक स्वर से ज़ाहिर करता हैं।
Source : Sankalp Thakur