अजब है यहां की गणित... न जाति न धर्म केंद्रित धड़ेबाजी, बस वोटरों की लाइन पर निगाहें

जम्मू-कश्मीर की ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर में दूसरे चरण में भी वोट डाले जा रहे हैं. सभी कि निगाहें मतदाताओं की लाइन पर हैं ना कि इस पर कि कौन मारेगा यहां से बाजी.

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Nihar Saxena
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अजब है यहां की गणित... न जाति न धर्म केंद्रित धड़ेबाजी, बस वोटरों की लाइन पर निगाहें

श्रीनगर के एक मतदान केंद्र पर अपने मताधिकार का प्रयोग करने आए लोग

बसंत के चलते श्रीनगर (srinagar) में इन दिनों रंग-बिरंगी फूलों की रंगीन चादर सी बिछी हुई है. यह अलग बात है कि देश भर में छाई चुनावी रंगीनियों से यह लगभग उदासीन है. यहां तैनात सुरक्षा बल हाई अलर्ट पर हैं. सड़कों पर यहां-वहां चेकपोस्ट ही ज्यादा दिखाई पड़ते हैं. ऐसे माहौल में 1,716 मतदान बूथों (second phase polling) को 12,90,318 वोटरों का इंतजार है. हालांकि मतदाताओं के लिए वोट डालने जाने का निर्णय करना आसान नहीं है.

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अगर पहले के चुनावों पर नजर डाली जाए तो कश्मीर में चुनाव कभी भी जाति-धर्म या राजनीतिक गणित पर निर्भर नहीं रहा. यहां तक कि गठबंधन भी काफी हद तक बेअसर ही रहता है. यहां के लिए गठबंधन का मतलब राजनीतिक पार्टियों के लिए खुद को जिलाए रखना या किसी खास व्यक्ति के राजनीतिक कैरियर को बनाने-बिगाड़ने भर से ज्यादा नहीं है. अगर यहां कोई चीज प्रभावी है तो भारत नामक देश से अलग होने का भाव. मुख्यधारा की राजनीति और अलगवावादियों (separatist) के लक्ष्य दो सामानांतर रेखाओं की तरह विगत कई दशकों से साथ-साथ चले आ रहे हैं.

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ऐसे में सभी को खासकर मुख्यधारा की राजनीतिज्ञों के लिए जरूरी है कि यहां के मतदाता घरों से निकल कर वोट डालने आएं. हालांकि ऐसा अक्सर या कहें कि हर चुनाव में नहीं होता है. यही वजह है कि श्रीनगर में हरेक की निगाहें बजाय कौन हारेगा-जीतेगा कि मतदाताओं की लगने वाली लाइन पर टिकी हैं.

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2017 में श्रीनगर में संसदीय उप-चुनाव के दौरान 7.14 फीसदी (second phase voting)मतदान हुआ था, जो पिछले तीन दशकों में सबसे कम था. मतदान के दिन पूरे संसदीय क्षेत्र में जगह-जगह हिंसा हुई, जिसमें आठ लोग मारे गए. सेना तक को पसीने आ गए थे हिंसा को काबू करने में. ऐसी ही स्थिति में मेजर तरुण गोगोई ने एक पत्थरबाज को अपनी जीप के बोनट से बांध लिया था. खूब हंगामा हुआ, जिसकी धमक केंद्र तक पहुंची और दोबारा मतदान का निर्णय किया गया.

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चार दिन बाद 38 मतदान बूथों पर दोबारा मतदान हुआ और महज 2 फीसदी वोटिंग ही हुई. इसका असर समग्र संसदीय सीट पर हुए मतदान पर पड़ा औऱ औसत 0.01 के गिरावट के साथ 7.13 पर आ गया. इसे सरल शब्दों में समझाएं तो श्रीनगर के हर दस मतदाताओं में से सिर्फ एक ही मताधिकार करने घरों से निकला. इतने कम मतदान के बावजूद इस सीट पर नेशनल कांफ्रेस का कब्जा हो चुका था.

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इतने कम मतदान प्रतिशत और महज छह संसदीय सीटों वाला यह राज्य अपनी कश्मीर समस्या को लेकर देश छोड़िए दुनिया भर में चर्चित है. यही नहीं, राज्य की राजनीति का एजेंडा भी यहीं से तय होता है. राज्य की पार्टियां तो छोड़िए मुख्यधारा की पार्टियों के लिए यहां चुनाव प्रचार कभी भी आसन नहीं रहा है.

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इस बार तो धारा 370 और धारा 35-ए (Article 370) समेत पब्लिक सेफ्टी एक्ट और अफस्पा (AFSPA)के भी चर्चे हैं. बड़गाम, गंडेरबल श्रीनगर ने सेना और स्थानीय-विदेशी आतंकियों की कई मुठभेड़े देखी हैं. ऐसे में इस बार भी यहां मतदान प्रतिशत ही सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण साबित होने वाला है. खासकर यह देखते हुए कि मतदान के प्रतिशत ने श्रीनगर को देश के चुनावी इतिहास में निचले पायदान पर रखा हुआ है.

Source : News Nation Bureau

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