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अर्श से फर्श पर पहुंचे लालू यादव, तेजस्वी यादव नहीं बचाए पाएं RJD की विरासत

राष्‍ट्रीय जनता दल (आरजेडी) सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव की राजनीति को बिहार में ऐसी नाकामयाबी का सामना करना पड़ेगा ये खुद लालू यादव ने भी नही सोचा होगा.

Updated on: 24 May 2019, 06:22 PM

नई दिल्ली:

राष्‍ट्रीय जनता दल (आरजेडी) सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव की राजनीति को बिहार में ऐसी नाकामयाबी का सामना करना पड़ेगा ये खुद लालू यादव ने भी नही सोचा होगा. जेल से ही महागठबंधन की पूरी पटकथा लिखने और बेटे तेजस्वी यादव को महानायक बनाकर खुद के निर्देशन में शूटिंग-मिक्सिंग के बावजूद जातीय गोलबंदी की फिल्म बुरी तरह पिट गई. न 'संविधान बचाओ' का नारा काम आया और न ही 'आरक्षण बढ़ाओ' यात्रा. आरजेडी के नए नेतृत्व में महागठबंधन की औकात 40 में महज एक सीट पर सिमट गई और लालू शून्य पर आउट हो गये.

2015 में लालू की पार्टी ने लगाई थी लंबी छलांग

रांची जेल अस्पताल में पड़े लालू को भी ऐसी उम्मीद नहीं रही होगी कि उनकी अनुपस्थिति में उनकी विरासत का यह हाल होगा. महज साढ़े तीन साल पहले लालू ने बिहार विधानसभा चुनाव में जिस रणनीति के तहत नीतीश कुमार के साथ विकास, सुशासन और सामाजिक गठजोड़ का कॉकटेल बनाया था, उससे उन्हीं के उत्तराधिकारी ने सबक नहीं लिया. 2005 के विधानसभा चुनाव में 74 और 2010 में महज 22 सीटों पर सिमट जाने वाली लालू की पार्टी 2015 के विधानसभा चुनाव में लंबी छलांग लगाई थी. जेडीयू-कांग्रेस के साथ गठबंधन में लड़ते हुए 243 में 80 सीटें अकेले अपने खाते में जोड़े थे. तीनों ने मिलकर 178 सीटें झटक ली थीं.

तेजस्वी अच्छी रणनीति बनाने में रहे नाकामयाब

लालू प्रसाद को 2014 में भी ऐसी बुरी पराजय का सामना नहीं करना पड़ा था. हार के बाद अब समीक्षा की होगी. कारणों की पड़ताल होगी. उम्मीद है कि महागठबंधन का थिंक टैंक अपनी फजीहत का आकलन ईमानदारी से करेगा, ताकि आगे की मुसीबत को टाला जा सके. लालू प्रसाद की गैरमौजूदगी में तेजस्वी की नई सलाहकार मंडली को हो सकता है हार के पीछे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का राष्ट्रवाद दिखे. यह भी हो सकता है कि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की आक्रामक शैली को भी जिम्मेदार बता दिया जाए. किंतु सत्य यह है कि हार की सबसे बड़ी वजह होती है खुद की कमजोरी और प्रतिद्वंद्वी की तुलना में अच्छी रणनीति की कमी.

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दरअसल, महागठबंधन के घटक दल मुगालते में थे कि लालू के वोट बैंक के सहारे मंझधार से पार निकल जाएंगे. उन्हें माय (मुस्लिम-यादव) समीकरण पर बड़ा भरोसा था. आंखें बंद कर ली और मतदाताओं के मूड भांपने में चूक गए. नतीजा हुआ कि पिछला प्रदर्शन भी बरकरार नहीं रख सके.

भारी पड़ा अनुभवहीन तेजस्वी का नेतृत्व
भारी पड़ा अनुभवहीन तेजस्वी का नेतृत्‍व, युद्ध में जीत-हार की जिम्मेवारी कैप्टन पर होती है. बिहार में बीजेपी, जेडीयू (जनता दल यूनाइटेड) और एलजेपी (लोक जनशक्ति पार्टी) की संगठित ताकत के मुकाबले में क्षेत्रीय दलों ने महागठबंधन बनाया था. नेतृत्व कर रहा था आरजेडी और कैप्टन थे तेजस्वी यादव, जिन्हें राजनीति में अनुभवी होना अभी बाकी है. उन्होंने एक नई सलाहकार मंडली बनाई, जिससे पूरे चुनाव घिरे रहे. सारी बातें भी सुनी. इस कवायद में पुराने और विश्वस्त सहयोगियों को दरकिनार कर दिया. न मुलाकात, न बात. सलाहकार मंडली ने अपनी मर्जी चलाई. बिहार की राजनीति को 1990 के दशक में पहुंचा दिया. जातीय आधार पर अखाड़े तैयार किए. पहलवान दिए. घमासान की रणनीति बनाई, जो आखिरकार पूरी तरह फ्लॉप साबित हुई. विरोधियों पर हमलावर तेजस्वी ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की खूब बखिया उधेड़ी और अब नीतीश कुमार बना रहे हैं माखौल.

1995 में अपने दम पर बहुमत पाने वाले लालू की पार्टी का कैसे हुए ये हाल

आरजेडी का पतन वर्ष 2000 के विधानसभा चुनाव के दौरान से ही शुरू हो गया था.1995 में अपने दम पर बिहार में बहुमत लाने वाली लालू की पार्टी महज पांच साल बाद ही 103 सीटों पर सिमट गई थी. 2005 के विधानसभा चुनाव में पार्टी के सिर्फ 54 विधायक जीत कर आए थे. 2010 के विधानसभा चुनाव में हालत और खराब हो गई थी. लालू को महज 22 सीटों से ही सब्र करना पड़ा था. चुनाव दर चुनाव ऐसे गिरा ग्राफ-

साल   आरजेडी लोकसभा की सीट
1996

15

1998

17

1999

6

2004

22

2009

5

2014 4
2019

00

लालू प्रसाद यादव के के कभी करीबी रहे राम विलास पासवान अब एनडीए का मुख्य हिस्सा हैं और लालू की हार पर उन्हें इन्होंने भी आइना दिखाया.

कोई भी ट्रंप कार्ड नहीं आया काम 

बिहार के अंडर करंट को लालू सबसे अच्छे तरीके से जानते हैं. किंतु इस बार सामने थे बीजेपी का राष्ट्रवाद और नरेंद्र मोदी की रणनीति. जेल में रहने के कारण तेजस्वी के लिए लालू इस बार उतने नजदीक नहीं थे. हालांकि, लालू की रणनीतिक सलाह तेजस्वी के अलावा महागठबंधन के अन्य बड़े नेताओं को भी उपलब्ध थी. शरद यादव, रघुवंश प्रसाद सिंह, उपेंद्र कुशवाहा, जीतनराम मांझी, मदन मोहन झा और मुकेश सहनी सरीखे नेता बार-बार रांची का चक्कर लगा रहे थे. फिर भी लालू चूक गए. बाहर रहते तो शायद हार के अंतर को कुछ कम कर सकते थे. नरेंद्र मोदी ब्रांड और नीतीश कुमार की विश्वसनीयता ने लालू के वोट बैंक के सारे समीकरणों पर पानी फिर गए. मांझी, मल्लाह और कुशवाहा के ट्रंप कार्ड भी बेकार हो गए.