UP चुनाव में गैर यादव ओबीसी पर बड़ा दांव, क्या है उनका चुनावी महत्व
बीजेपी के गैर-यादव अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के सफल सामाजिक गठबंधन ने वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश में इसे आगे बढ़ते हुए देखा था.
लखनऊ:
UP Election 2022 : उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव को लेकर सरगर्मी तेज है. फिलहाल तमाम पार्टियां अपने-अपने उम्मीदवारों के नाम की घोषणा कर रही हैं. इसी कड़ी में बीजेपी भी 7 चरणों में होने वाले चुनाव के लिए ज्यादातर प्रत्याशियों के नाम की घोषणा कर चुकी है. जहां बीजेपी ने गैर यादव ओबीसी वोटरों को अपने पाले में लाकर एक अलग वोटबैंक तैयार किया है वहीं सपा ने एमवाई (मुस्लिम, यादव) फैक्टर का ख्याल रखते हुए गैर यादव ओबीसी पर ध्यान केंद्रित किया है. बीजेपी और सपा दोनों गैर यादव ओबीसी फॉर्म्युले पर अपनी नई सोशल इंजिनियरिंग तैयार की है. आइए जानते हैं कि यूपी में गैर यादव ओबीसी की क्या स्थिति है और वह किस तरह चुनाव में अपनी अहमियत रखते हैं.
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यूपी में कितनी है गैर-यादव ओबीसी की भूमिका और क्या है चुनावी महत्व ?
बीजेपी के गैर-यादव अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के सफल सामाजिक गठबंधन ने वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश में इसे आगे बढ़ते हुए देखा था, लेकिन इस महीने की शुरुआत में पार्टी को तीन पिछड़े वर्ग के मंत्रियों स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और धर्म सिंह सैनी के एक के बाद एक के इस्तीफे से झटका लगा और लखनऊ में सत्ता काबिज करने को लेकर अखिलेश यादव ने तीनों को शामिल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. अपने मुस्लिम-यादव टैग को छोड़ने के लिए बेताब समाजवादी पार्टी अब अपने ही खेल में भाजपा को हराने की कोशिश कर रही है. यूपी में चुनावी विमर्श में गैर यादव ओबीसी का दबदबा रहा है, लेकिन गैर यादव ओबीसी कौन हैं और वे इतने महत्वपूर्ण क्यों हो गए हैं?
ओबीसी में कई जातियां शामिल
ओबीसी श्रेणी में विभिन्न जातियां शामिल हैं. राजनीतिक वैज्ञानिक सुधा पई ने तर्क दिया है कि हिंदी भाषी क्षेत्र में ओबीसी जाति और वर्ग मानदंड यानी सामाजिक स्थिति, आय और शिक्षा दोनों के आधार पर तीन श्रेणियों में आते हैं. ये सबसे पहले हैं, संख्यात्मक रूप से छोटे, आर्थिक रूप से संपन्न, सामाजिक रूप से बेहतर स्थिति में हैं. साथ ही राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हैं जो अगड़े या उच्च पिछड़े वर्ग से आते हैं. दूसरा, एक मध्यम वर्ग है जो बड़े पैमाने पर जमींदार, ग्रामीण क्षेत्रों में प्रमुख जाति का गठन और धीरे-धीरे अपनी सामाजिक-आर्थिक और शैक्षिक स्थिति में सुधार कर रहे हैं. तीसरा, सबसे पिछड़ा वर्ग या बेहद पिछड़ा वर्ग जो सामाजिक स्थिति, आय और शैक्षिक क्षमताओं के मामले में सबसे पिछड़े हैं. बावजूद असमानताएं बनी रहीं जिससे बड़ी ओबीसी श्रेणी के भीतर एक आंतरिक तनाव पैदा हुआ और इसलिए ओबीसी का मतदान पैटर्न हमेशा खंडित रहा.
भाजपा विधायक हुकुम सिंह के नेतृत्व में सामाजिक न्याय समिति का गठन
28 जून 2001 को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने आरक्षण देने के लिए एक समान नीति तैयार करने के लिए भाजपा विधायक हुकुम सिंह के नेतृत्व में एक सामाजिक न्याय समिति का गठन किया था. समिति ने ओबीसी को पिछड़ी, अधिक पिछड़ी और सबसे पिछड़ी जातियों में विभाजित करने की सिफारिश की. केवल यादवों को पहली श्रेणी में रखा गया था और उन्हें पांच प्रतिशत आरक्षण दिया गया था. आठ जातियों सोनार, जाट, कुर्मी, गिरि, गुर्जर, गोसाईं, लोध और कम्बोज को अधिक पिछड़ा घोषित किया गया और उन्हें नौ प्रतिशत आरक्षण दिया गया जबकि कुशवाहा, कश्यप, निषाद, कोएरी, तेली, सैनी, आदि सहित 70 जातियों को अति पिछड़ा वर्ग के रूप में वर्गीकृत किया गया और 14 प्रतिशत आरक्षण दिया गया. हालांकि, समिति की रिपोर्ट को लागू नहीं किया गया क्योंकि सिंह ने मार्च 2002 में पद छोड़ दिया था. इसके बाद के विधानसभा चुनाव में भाजपा तीसरे स्थान पर रही.
हुकुम सिंह समिति द्वारा ओबीसी का उपवर्गीकरण :
अनुसूची कैटेगरी जाति जाति के नाम
A पिछड़ी जाति 1 यादव-अहीर/ग्वाला/यदुवशिया
B अधिक पिछड़ी जाति 8 सोनार/सुनार/स्वर्णकर, जाट,
लोध/लोढ़ा/लोधी/लोत/लोध-राजपूत, कम्बोज
गिरि, गुज्जर, गोसाईं, कुर्मी/चनाउ/पटेल
पटनवार/कुरमी-मॉल/कुरमी-सैंथवार,
C सबसे पिछड़ी जाति अरख / अरकवंशीय, कच्छी / कच्छी कुशवाहा / शाक्य, कहार /
कश्यप, केवट / मल्लाह / निषाद,
कोईरी, कुम्हार / प्रजापति, कासगर, कुंजरा या रायन, गरेरिया /
पाल वाघेल, गद्दी /घोशी, चिकवा /
कसाब कुरैशी , छिप्पी/चिपा, जोगी, झोजा,
धफली, तमोली/बराई/चौरसिया, तेली/
सामानी/रोगंगर/साहू/रौनियार/गांधी/अरक, दारजी
लद्रीसी/काकुत्स्थ, धीवर, नक्कल, नट (जो अनुसूचित जाति में शामिल नहीं हैं),
नाइक, लोहार/लहार-सैफी, लोनिया/नोनिया/गोले-ठाकुर/लोनिया-चौहान, रंगरेज/रंगवा,
मार्चचा, हलवाई/मोदनवाल, हज्जार्न/नई/सलमैन/सविता/श्रीवास, राय सिख,
सक्का-भिस्ती/भिस्ती-अब्बासी , धोबी (अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति में शामिल नहीं),
कसेरा/ठठेरा/ताम्रकर, नानबाई, मिर्शीकर, शेख/सरवारी (पिराई)/पीराही, मेव/मेवाती,
कोष्टा/कोष्टी, रोर, खुमरा/ संगतराश/हांसिरी, मोची, खागी तंवर, सिंघारिया, फकीर,
बंजारा/रंकी/मुकेरी/मुकेरानी, बरहाई/सैफी निश्वकर्मा/पचाल/रामगढ़िया/जंगीर/धीमन,
बारी, बेरगी, बिंद, बियार, भर/राजभर, भुर्जी/भरभूनंदू/भूर , भठियारा, माली/सैनी,
हलालखोर, कटुवा, महीगीर, डांगी,
ढाकर, गड़ा, तंतवा, जोरिया, पटवा / पताहारा / पताहारा / देववंशी, कलाल / कलवार /
कलार, मनिहार / कचेर / लखरा, मुराओ / मुराई / मौर्य, मोमिन (अंसार) ),
मुस्लिम कायस्थ, मिरासी, नदफ (धुनिया)/मंसूरी/कांडेरे/कादेरे/काडेरे/करन (कर्ण)
संख्या में गैर यादव ओबीसी वोट
चूंकि उपनिवेशवाद के बाद के भारत में जाति जनगणना के आंकड़े जारी नहीं किए गए थे, इसलिए मतदाताओं की जाति संरचना के बारे में एक मजबूत विश्वसनीय डेटा सेट उपलब्ध नहीं है. हालांकि, राजनीतिक विश्लेषक विग्नेश कार्तिक केआर और पत्रकार एजाज अशरफ ने यूपी की जाति-वार जनसंख्या प्रतिशत का अनुमान लगाया है. उनके अनुमानों के अनुसार, उत्तर प्रदेश की जनसंख्या में लगभग 11 प्रतिशत यादव, 10 प्रतिशत अधिक पिछड़ी जातियां जिनमें कुर्मी 3.9, लोध 2.62, जाट 1.96, गुज्जर 0.88, सोनार 0.29 प्रतिशत और 20 प्रतिशत अति पिछड़ी जातियां हैं. वहीं गडरिया/पाल 2.4, मल्लाह (निषाद) 2.34, तेली/साहू 1.94, कुम्हार/प्रजापति 1.74, कहार/कश्यप 1.8, कच्ची/कुशवाहा/शाक्य 1.76, नई 1.25, राजभर 2.36 प्रतिशत है.
गैर यादव ओबीसी का चुनावी महत्व
यूपी में चुनावी मुकाबला पिछले दो दशकों से त्रिकोणीय बना हुआ है, जिसमें भाजपा, बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और समाजवादी पार्टी (सपा) प्रमुख सत्ता के दावेदार रहे हैं. इन राजनीतिक दलों को क्रमशः उच्च जाति, अनुसूचित जाति और यादव-मुस्लिम समुदायों के बीच मजबूत समर्थन प्राप्त है. राजनीतिक दलों के मजबूत सामाजिक समर्थन वाले मतदाताओं की पहचान पक्षपातपूर्ण मतदाताओं के रूप में की जाती है. ऐसे मतदाता राजनीतिक दलों के उत्थान और पतन में एक अनिवार्य भूमिका निभाते हैं, लेकिन वे चुनाव में जीत का फैसला नहीं करते हैं. यह कम पक्षपाती मतदाताओं द्वारा तय किया जाता है जो किसी भी राजनीतिक दल के साथ गठबंधन नहीं करते हैं. यूपी में ऐसे अति पिछड़ा जाति के मतदाता हैं जो भाजपा, बसपा या सपा के साथ कम गठबंधन के कारण चुनावी परिणामों को तय करते हैं. यूपी में बीजेपी ने 2012 से अधिक पिछड़ी और सबसे पिछड़ी जाति के मतदाताओं को जुटाने के लिए कड़ी मेहनत की है और इसका भरपूर लाभ मिला है. दरअसल, यह तर्क दिया जाता है कि बीजेपी ने राज्य में सवर्ण, गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव एससी का गठबंधन बनाया है. इस नए सामाजिक गठबंधन ने पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं और भाजपा न केवल सबसे अधिक सीटें जीतने में सफल रही है, बल्कि वोट शेयर भी हासिल किया है. आगामी विधानसभा चुनाव में ऐसा प्रतीत होता है कि सपा द्वारा इस सामाजिक गठबंधन में सेंध लगाने की गंभीर कोशिश की गई है.
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