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आज फिर क्यों ना कहा जाए कि नरेंद्र मोदी के सामने विपक्ष बौना नज़र आता है...

देश के 17 राज्यों में कांग्रेस का खाता तक नहीं खुला. इनमें दिल्ली. गुजरात. आंध्र प्रदेश. राजस्थान. हरियाणा. हिमाचल प्रदेश. उत्तराखंड. अरुणाचल प्रदेश. ओडिशा. त्रिपुरा. मणिपुर. मिजोरम. दमन दीप. दादर नगर हवेली. अंडमान और चंडीगढ़ जैसे राज्य शामिल हैं.

Updated on: 24 May 2019, 09:12 PM

नई दिल्‍ली:

10 साल मुख्यमंत्री रहने का बाद भी दिग्विजय सिंह अपनी सीट बचा नहीं पाए. भोपाल से साध्वी प्रज्ञा के सामने ऐसे चुनाव हारे जैसे पहली बार चुनावी मैदान में हों. 15 साल दिल्ली की सीएम रहीं शीला दीक्षित ने मनोज तिवारी के सामने सरेंडर कर दिया. भूपिंद्र सिंह हुड्डा. हरीश रावत. अशोक चौहाण. सुशील कुमार शिंदे. मुकुल संगमा. नवाम टुकी. वीरप्पा मोइली जैसे नेताओं का तो पता ही नहीं चला कि वो कब मोदी की आंधी में सूखे पत्तों की तरह उड़ गए. गुना से ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे नेता अपना गढ़ नहीं बचा पाए. खुद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अपनी सीट अमेठी हार गए.

देश के 17 राज्यों में कांग्रेस का खाता तक नहीं खुला. इनमें दिल्ली. गुजरात. आंध्र प्रदेश. राजस्थान. हरियाणा. हिमाचल प्रदेश. उत्तराखंड. अरुणाचल प्रदेश. ओडिशा. त्रिपुरा. मणिपुर. मिजोरम. दमन दीप. दादर नगर हवेली. अंडमान और चंडीगढ़ जैसे राज्य शामिल हैं.यानि कांग्रेस को जिसका डर था वही हुआ. वैसे इसमें कोई संशय नहीं है कि समृति इरानी ने अमेठी में जी तोड़ मेहनत की थी और इसी के नतीजे आज सामने हैं. जब राहुल गांधी को चुनाव हराने के बाद उन्होंने ट्वीट कर के लिखा कि. कौन कहता है कि आसमां में सुराख हो नहीं सकता.. एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों ..

ये पत्थर तबीयत से तभी उछाला गया था

ये पत्थर तबीयत से तभी उछाला गया था, जब 1977 में देश में छठे लोकसभा चुनाव हो रहे थे .. इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं लेकिन इमरजेंसी और अपने खिलाफ हुए आंदोलनों की वजह से वो सत्ता से बेदखल हो गईं. तब जनता पार्टी गठबंधन को 298 सीटें मिली थीं. कांग्रेस 153 सीटों पर सिमट गई थी. ये वो चुनाव था जिसमें अमेठी से संजय गांधी भारतीय लोकदल के उम्मीदवार रवींद्र प्रताप सिंह से चुनाव हार गए थे. इतना ही नहीं खुद इंदिरा गांधी भी रायबरेली से चुनाव हार गई थीं. भारतीय लोकदल के उम्मीदवार राज नारायण से इंदिरा गांधी 50 हजार से भी ज्यादा वोटों से चुनाव हारी थीं. तब बीजेपी नहीं थी लेकिन आपको आज जो बीजेपी दिख रही है. उसका निर्माण जनता दल गठबंधन के टूटने पर ही हुआ है. वैसे ये वो दौर था जब विदिशा में भारतीय लोकदल के राघव जी भी चुनाव जीते थे.

बीजेपी को महज 2 सीटें मिली थीं
इसके बाद जब 1980 में लोकसभा के चुनाव हुए तो इंदिरा गांधी ने कमबैक किया और 353 सीटें जीतीं लेकिन 31 अक्टूबर 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई. और इसके बाद जब चुनाव हुए तो कांग्रेस ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए और 415 सीटें जीतीं. ये वो दौर था जब जनता पार्टी से टूटकर बनी बीजेपी को महज 2 सीटें मिली थीं. लेकिन राजीव गांधी इस जीत को ज्यादा दिन तक बरकरार नहीं रख पाए. मसलन 1989 में जब नौंवी लोकसभा के चुनाव हुए तो राजीव गांधी वाली कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा. कांग्रेस को महज 197 सीटें मिलीं. जबकि वीपी सिंह के नेतृत्व में नेशनल फ्रंट को 143 और बीजेपी को 85 सीटें मिलीं. ये वो दौर था जब वीपी सिंह प्रधानमंत्री तो थे लेकिन बीजेपी अपने दूसरे चुनाव में देश की तीसरी सबसे ज्यादा सीटें जीतने वाली पार्टी बन गई थी. इसके बाद बीजेपी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा .

वैसे ये वो चुनाव था जब राजीव गांधी बोफोर्स घोटाले के आरोपों का सामना कर रहे थे. उन पर आरोप था कि उन्होंने अपने परिवार के करीबी बताए जाने वाले इतालवी व्यापारी ओत्तावियो क्वात्रोक्की के साथ इस मामले में बिचौलिये की भूमिका अदा की थी. तभी 21 मई 1991 को राजीव गांधी की हत्या कर दी गई. ये वो दौर था जब बीजेपी और ऊंचाइयों पर जा रही थी. क्यों कि तब 1991 के 10वें लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को 244 और बीजेपी को 120 सीटें मिली थीं. यानि अपने तीसरे लोकसभा चुनाव में बीजेपी देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई थी. जिसने सबसे ज्यादा सीटें 1991 के लोकसभा चुनाव में जीती थीं. ये वही दौर था जब उमा भारती खजुराहो से. अटल बिहारी वाजपेयी लखनऊ से और दिग्विजय सिंह एमपी की राजगढ़ लोकसभा सीट से चुनाव जीते थे.

इसके बाद 1996 में देश में जब 11वीं लोकसभा चुनाव हुए तो बीजेपी अपने चौथे चुनाव ही में देश की सबसे ज्यादा सीटें जीतने वाली पार्टी बन गई थी. क्यों कि तब बीजेपी को 161. कांग्रेस को 140 सीटें मिली थीं. वैसे ये वही दौर था जब देश में राम मंदिर का मुद्दा बेहद सुर्खियों में था. ये वही समय था जब अटल बिहारी वाजपेयी 13 दिनों के लिए देश के प्रधानमंत्री बने थे लेकिन बाद में बहुमत नहीं साबित कर पाए और उनकी सरकार गिर गई.

दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस थी जिसको 140 सीटें मिलीं. लेकिन उसने सरकार न बनाने का फैसला लिया. जिसके बाद 13 से अधिक दलों के संयुक्त मोर्चा को कांग्रेस ने बाहर से समर्थन दिया और चौधरी चरण सिंह. चंद्रशेखर के बाद इस बार देवेगौड़ा तीसरे प्रधानमंत्री बने. लेकिन ये ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाए और कांग्रेस ने बिना किसी ठोस कारण के देवेगौड़ा से समर्थन वापस लिया और संयुक्त मोर्चे के इंद्रकुमार गुजराल को समर्थन दे दिया लेकिन तभी राजीव गांधी हत्याकांड पर आई जैन आयोग की रिपोर्ट लीक हो गई. जिससे देशभर में हड़कंप मच गया और कांग्रेस ने गुजराल से भी समर्थन ले लिया।

इसके बाद 1998 में देश में एक बार फिर मध्यावधि चुनाव हुए. ये बीजेपी का पांचवा लोकसभा चुनाव था. इस चुनाव में भी बीजेपी ने देश में सबसे ज्यादा 182 सीटें जीतीं. तब कांग्रेस का रकबा 141 सीटों पर सिमट गया था और 19 मार्च 1998 को अटल बिहारी वाजपेयी फिर से प्रधानमंत्री बने लेकिन 17 अप्रैल 1999 को वाजपेयी ने लोकसभा में विश्वास मत खो दिया और इस बार जयललिता के नेतृत्व वाली अन्नाद्रमुक पीछे हट गईं और 1 वोट से अटल बिहारी वाजपेयी सत्ता से बाहर हो गए. 26 अप्रैल को देश के तत्कालीन राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने लोकसभा भंग कर दी और जल्दी चुनाव करने की घोषणा कर दी.

लेकिन ऐसा नहीं था कि इस दौर में सिर्फ अटल जी या बीजेपी को ही अपने सहयोगियों से नुकसान झेलना पड़ रहा था. 1998 में सोनिया गांधी को कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए निर्वाचित किया गया लेकिन तब महाराष्ट्र के तत्कालीन कांग्रेस नेता शरद पवार ने सोनिया गांधी की इटली वाली नागरिकता पर सवाल उठा दिए. उधर अटल जी का मिशन कारगिल पूरा हो चुका था. और जब 6 अक्टूबर 1999 को नतीजे आए तो बीजेपी को 182. कांग्रेस को 114 सीटें मिलीं. यानि राजग को 298 सीटें और कांग्रेस गठबंधन को 136 सीटें मिलीं. 1999 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी देश की सबसे ज्यादा सीटें जीतने वाली पार्टी बनी हुई थी. जिसके बाद एक बार फिर 19 अक्टूबर 1999 को अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने.

लोकसभा चुनाव 

  • 2004 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी शाइनिंग इंडिया के नारे तले चुनावी मैदान में उतरी लेकिन ये चुनाव बीजेपी हार गई. इस चुनाव में बीजेपी को 138 और कांग्रेस को 145 सीटें मिलीं. ये वो चुनाव था जिसमें एग्जिट पोल बीजेपी की जीता बता रहे थे. वैसे ये चुनाव भले ही बीजेपी हारी लेकिन सीटों के लिहाज़ से वो कांग्रेस से ज्यादा पीछे नहीं थी. मसलन वो इस चुनाव में भी देश की दूसरी सबसे ज्यादा सीटें जीतने वाली पार्टी थी.
  • 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 206 और बीजेपी को 116 सीटें मिलीं. ये चुनाव भी बीजेपी हारी लेकिन इस दौर में भी वो देश की दूसरे नंबर की सबसे बड़ी पार्टी थी.इसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव तो ऐतिहासिक बन गया. क्यों कि नरेंद्र मोदी का अच्छे दिन वाला डायलोग जनता के मन में इतना बस गया कि बीजेपी ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए. इस चुनाव में बीजेपी को 282 यानि अपनी दम पर बहुमत से ज्यादा सीटें मिलीं जबकि कांग्रेस 44 सीटों पर सिमट गई.
  • 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस चौकीदार चोर है के नारे तले उतरी. राफेल घोटाले के आरोप लगाए लेकिन बीजेपी की मैं भी चौकीदार मुहिम से पिछड़ गई. वैसे इस चुनाव से कांग्रेस और विपक्ष को बहुत सारी उम्मीदें थीं. फिर ऐसा क्या हुआ जो कांग्रेस के सारे सूरमा चारों खाने चित हो गए. विपक्ष के सारे गठबंधन वोटों के लिए बंधन बन गए और बीजेपी फिर से सबसे ज्यादा सीटें जीतने वाली पार्टी बन गई.

दरअसल कांग्रेस को लगता है कि बीजेपी ने सिर्फ राष्ट्रवाद को ही अपना चुनावी मुद्दा बनाया. शायद इसीलिए राफेल को लेकर राहुल आक्रमक तो रहे लेकिन कारगर नहीं . दूसरी बात ये कि ऐसा बिल्कुल नहीं है कि बीजेपी ने सिर्फ राष्ट्रवाद को ही अपना चुनावी मुद्दा बनाया. बल्कि बीजेपी ने जमीनी स्तर पर इतने बड़े-बड़े और पारदर्शी कदम उठाए जिन पर कभी 12 तुगलक रोड का ध्यान ही नहीं गया. मसलन उत्तर प्रदेश जैसे सबसे बड़े राज्य में बीजेपी अब तक की जानकारी के मुताबिक 60 सीटें जीत रही है.

सबसे बड़ी वजह 

इसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि 16 लाख लोगों को पक्का मकान दिया जा चुका है. 2.5 करोड़ शौचालय बनाए जा चुके हैं. 1 करोड़ 14 लाख लोगों के खाते में 2-2 हजार रुपए आ चुके हैं. सौभाग्य योजना के तहत 80 लाख मुफ्त बिजली के कनेक्शन दिए जा चुके हैं. फिर बताइए बीजेपी क्यों ना यूपी में सबसे ज्यादा सीटें जीते.. वैसे लोहिया जी कहा करते थे कि बिजली. मकान और रोटी जिस पार्टी के नेता ने जनता को दे दी वो 25 सालों तक देश के सर्वोच्च पद पर आसीन रहेगा. शायद इसी वजह से नरेंद्र मोदी को ये जादुई जनादेश मिला है.

विकास की चाबी डिंबल भाभी

लेकिन लोहिया की तस्वीर तले राजनीति करने वाले शायद इस बात को भूल गए. क्यों कि अगर वो ना भूले होते यूपी में उनका ये हाल नहीं होता. यहां एक अहम बात ये भी है कि विपक्ष ने नरेंद्र मोदी की घेराबंदी तो की लेकिन उनके पास खुद का नारा तक नहीं था. मसलन कांग्रेस के चौकीदार चोर है वाले नारे से ही BSP और सपा भी अपना काम चलाते रहे और नारा बनाया भी तो क्या.. विकास की चाबी डिंबल भाभी ..

जिस दौर की सियासत के केंद्र में परिवारवाद जैसे मुद्दे सुलग रहे हों वहां तेजस्वी. अखिलेश और राहुल गांधी जैसे नेताओं को जनता क्यों चुनेगी ? वो भी तब जब गुजरात के सामान्य परिवार से आने वाले नरेंद्र मोदी अटल जी के सियासी कैनवस में बिल्कुल फिट बैठते हों