आजादी की लड़ाई में शरत चंद्र बोस का अमर योगदान, एकता और संघर्ष की जीती-जागती मिसाल

आजादी की लड़ाई में शरत चंद्र बोस का अमर योगदान, एकता और संघर्ष की जीती-जागती मिसाल

आजादी की लड़ाई में शरत चंद्र बोस का अमर योगदान, एकता और संघर्ष की जीती-जागती मिसाल

author-image
IANS
New Update
आजादी की लड़ाई में शरत चंद्र बोस का अमर योगदान, एकता और संघर्ष की जीती-जागती मिसाल

(source : IANS) ( Photo Credit : IANS)

कोलकाता, 6 सितंबर (आईएएनएस)। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का नाम तो स्वर्ण अक्षरों में अंकित है, लेकिन उनके बड़े भाई शरत चंद्र बोस का योगदान भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।

Advertisment

शरत चन्द्र बोस एक सफल बैरिस्टर और कट्टर राष्ट्रवादी नेता के तौर पर अहिंसक आंदोलनों से लेकर राजनीतिक संघर्ष तक हर मोर्चे पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद को चुनौती दी। उनका जन्म 6 सितंबर 1889 को कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) में एक प्रतिष्ठित कायस्थ परिवार में हुआ था। पिता जानकीनाथ बोस उड़ीसा के कटक में प्रमुख अधिवक्ता थे, जबकि मां प्रभावती देवी उत्तरी कोलकाता के प्रसिद्ध दत्त परिवार से ताल्लुक रखती थीं।

शरत और सुभाष के बीच भाईचारे का रिश्ता मात्र नहीं, बल्कि स्वतंत्रता के प्रति साझा समर्पण का प्रतीक था। शरत चन्द्र बोस की शिक्षा-दीक्षा कोलकाता में हुई। उन्होंने प्रेसिडेंसी कॉलेज से स्नातक की उपाधि प्राप्त की, फिर 1910 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री हासिल की। 1911 में इंग्लैंड जाकर लिंकन इन में बैरिस्टर बनने का प्रशिक्षण लिया। भारत लौटकर कलकत्ता हाईकोर्ट में वकालत शुरू की, जो जल्द ही सफल साबित हुई। लेकिन स्वतंत्रता की लौ ने उन्हें कानूनी पेशे से मोहभंग कर दिया। युवावस्था में ही बंगाल विभाजन (1905) के खिलाफ आंदोलन में सक्रिय हो गए, जहां क्रांतिकारी उत्साह ने उनके मन को आग लगा दी। अहिंसा के सिद्धांतों पर यकीन रखने वाले शरत का क्रांतिकारियों के प्रति सहानुभूति का भाव हमेशा बना रहा।

शरत चंद्र बोस का राजनीतिक सफर देशबंधु चित्तरंजन दास से प्रेरणा लेकर शुरू हुआ। दास के मार्गदर्शन में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े। 1920 के दशक में असहयोग आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। महात्मा गांधी के नेतृत्व में चले इस आंदोलन ने ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी को बढ़ावा दिया, जिसमें शरत ने कलकत्ता निगम के कार्यों के माध्यम से महत्वपूर्ण योगदान दिया। वे वर्षों तक निगम के चर्चित सदस्य रहे। 1923 में युवा कांग्रेस के अध्यक्ष बने और बंगाल प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के प्रचार में जुटे। उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वे जल्द ही कांग्रेस कार्यकारी समिति (सीडब्ल्यूसी) के सदस्य बन गए।

1930 के दशक में वे बंगाल विधान सभा के कांग्रेसी दल के नेता चुने गए, जहां उन्होंने विधायी स्तर पर ब्रिटिश नीतियों का विरोध किया। शरत चन्द्र बोस का सबसे बड़ा योगदान बंगाल की राजनीति में था। वे सांप्रदायिक विभाजन के कट्टर विरोधी थे।

1940 के दशक में जब द्वितीय विश्व युद्ध के बादल मंडरा रहे थे, शरत ने सुभाष के साथ मिलकर फॉरवर्ड ब्लॉक का समर्थन किया। हालांकि वे गांधीजी के अहिंसक मार्ग पर अडिग थे, लेकिन सुभाष के प्रति उनका समर्थन अटूट था। 1939 में जब सुभाष ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की, तो शरत ने इसे नैतिक समर्थन दिया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब सुभाष जर्मनी और जापान की ओर रुख कर चुके थे, शरत ने घरेलू मोर्चे पर संघर्ष जारी रखा। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में गिरफ्तारी का सामना किया।

उनका असली संघर्ष बंगाल विभाजन के खिलाफ था। वे चाहते थे कि बंगाल को भारत और पाकिस्तान से अलग एक स्वतंत्र राज्य बनाया जाए, ताकि सांप्रदायिक दंगे थम सकें। इस प्रस्ताव के लिए उन्होंने जोरदार अभियान चलाया, लेकिन मुस्लिम लीग और कांग्रेस के दबाव में यह विफल रहा। बंगाल विभाजन (1947) ने लाखों लोगों को विस्थापित किया और शरत की आंखों में आंसू ला दिया। स्वतंत्रता के बाद भी वे बंगाल के पुनर्वास और शरणार्थी समस्या पर सक्रिय रहे। उन्होंने फॉरवर्ड अखबार के माध्यम से जनमत निर्माण किया।

शरत चंद्र बोस का निधन 20 फरवरी 1950 को न्यूयॉर्क में हृदयाघात से हुआ, जब वे बेटे सिसिर के इलाज के लिए अमेरिका गए थे। उनकी मृत्यु ने भारतीय राजनीति को एक बड़ा झटका दिया। आज भी कलकत्ता हाईकोर्ट के निकट उनकी प्रतिमा खड़ी है, जो उनके संघर्ष की गाथा सुनाती है।

--आईएएनएस

एकेएस/डीएससी

डिस्क्लेमरः यह आईएएनएस न्यूज फीड से सीधे पब्लिश हुई खबर है. इसके साथ न्यूज नेशन टीम ने किसी तरह की कोई एडिटिंग नहीं की है. ऐसे में संबंधित खबर को लेकर कोई भी जिम्मेदारी न्यूज एजेंसी की ही होगी.

Advertisment