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कानून अंधा है तो एनकाउंटर गलत कैसे? आखिर इस दरिंदगी की दवा क्या है...

हैदराबाद एनकाउंटर के बाद अब कई लोग मांग कर रहे हैं कि उन्नाव कांड में भी इंसाफ़ का वही तरीका आजमाया जाए, जो हैदराबाद के हैवानों को ख़त्म करने के लिए इस्तेमाल किया गया था.

NITU KUMARI | Edited By :
07 Dec 2019, 09:59:33 PM (IST)

नई दिल्ली:

हैदराबाद एनकाउंटर के बाद अब कई लोग मांग कर रहे हैं कि उन्नाव कांड में भी इंसाफ़ का वही तरीका आजमाया जाए, जो हैदराबाद के हैवानों को ख़त्म करने के लिए इस्तेमाल किया गया था. कानून की नज़र से देखें तो हैदराबाद एनकाउंटर को कतई सही नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि वो संविधान सम्मत नहीं था. बावजूद इसके जाने क्यों मन पहली बार पुलिसिया एनकाउंटर के हक में गवाही दे रहा है. ये जानते हुए भी किसी भी संवैधानिक व्यवस्था में किसी भी तरह के जुर्म की सज़ा को न्याय की कसौटी पर कसे बिना वाजिब नहीं कहा जा सकता पर जिस व्यवस्था में कानून कठपुतली और न्याय नौटंकी बन जाए वहां 'दिशा' जैसी दरिंदगी की शिकार महिलाएं भला किस भरोसे अदालती इंसाफ़ की आस करे?

एक औरत की मान-मर्यादा को इस तरह कुचलने का जुर्म सिर्फ एक अपराध नहीं बल्कि बीमार मानसिकता की निशानी है. माना कि सिर्फ़ फांसी या एनकाउंटर जैसी वैध या अवैध सज़ा से ये बीमारी दूर नहीं होने वाली, पर अब बर्दाश्त की तमाम बंदिशें टूटती जा रही हैं. बेहतर होता कि हैदराबाद एनकाउंटर जैसे वाकयों से पहले ही हमारी सरकार और सिस्टम ने इस ज्वालामुखी को समझ लिया होता. निर्भया कांड के बाद ऐसा लगा भी था कि शायद अब अपराध और इंसाफ़ के तकाज़े पर पुलिस, कानून और न्यायिक प्रक्रिया का नज़रिया बदलेगा पर ऐसा नहीं हुआ और नतीजा सामने है.

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विडंबना ये है कि जिस पुलिस ने पीड़ित के परिजनों की शिकायत को दरकिनार किया. वक्त रहते कार्रवाई करने में कोताही बरती, अब अचानक वही खाकी वर्दी समाज के लिए शौर्य और दिलेरी का प्रतीक बन गई है. ये जानते समझते हुए भी कि देश में हर साल औसतन 30 हजार से भी ज्यादा दुष्कर्म के मामलों में सबसे सुस्त और गैरज़िम्मेदाराना रवैया पुलिस का ही रहा है, हम उसी पुलिस की पराक्रम गाथा गा रहे हैं. ऐसे में याद आता है बिहार के भागलपुर का चर्चित आंखफोड़वा कांड जिसमें जनता की शह और सहानुभूति पर सवार होकर ही कानून के रखवालों ने कानून के द्रोहियों को तेजाबी दंड दिया था.

ये कहने की जरूरत नहीं कि पुलिस हो या अधिकारी, वकील हो या जज, सब हमारे आपके बीच से निकले हुए ही चेहरे हैं. इसलिए सीधे तौर पर किसी एक को दोषी या ज़िम्मेदार ठहराकर हम समस्या के जड़ तक नहीं पहुंच सकते. ज़रूरत बदलाव की है. पुलिस व्यवस्था में सुधार, न्यायिक जटिलताओं में सुधार, सरकार की समझदारी और समाज की संवेदनशीलता में सुधार. ताकि वक्त रहते पीड़ितों को इंसाफ़ मिले, दोषियों को सज़ा मिले और कानून का इकबाल कायम रहे.