नई दिल्ली, 8 अक्टूबर (आईएएनएस)। उड़ीसा (अब ओडिशा) की धरती से जन्मे गोपबंधु दास भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक अद्वितीय नायक थे, जिन्हें उत्कल मणि (उड़ीसा का रत्न) के नाम से भी जाना जाता है। उनका जीवन न केवल राजनीतिक गतिविधियों और स्वतंत्रता के संघर्ष में समर्पित था, बल्कि समाज के उत्थान और शिक्षा के क्षेत्र में भी उन्होंने उल्लेखनीय योगदान दिया। 9 अक्टूबर 1877 को उड़ीसा के पुरी जिले के सुआंडो गांव में जन्मे गोपबंधु दास ने अपने गरीब ब्राह्मण परिवार से निकलकर ओडिशा की अस्मिता और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपनी पहचान बनाई।
गोपबंधु दास ने प्रारंभिक शिक्षा पुरी, कटक और कलकत्ता (अब कोलकाता) में प्राप्त की। वह बुद्धिमान और अध्ययनशील विद्यार्थी थे, जिसने उन्हें उच्च शिक्षा की ओर अग्रसर किया। 1906 में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से एल.एल.बी. की डिग्री प्राप्त की। उन्होंने वकालत को अपने करियर के रूप में चुना और मयूरभंज के वकील के रूप में भी कार्य किया। लेकिन राजनीति और सामाजिक कार्यों के प्रति उनके लगाव ने उन्हें यह अहसास कराया कि उनका जीवन समाज सेवा और स्वतंत्रता संग्राम के लिए समर्पित होना चाहिए। इसी उद्देश्य से उन्होंने वकालत छोड़कर पूर्णकालिक रूप से स्वतंत्रता संग्राम में अपनी भूमिका निभाने का निश्चय किया।
गोपबंधु दास ने विद्यार्थी जीवन से ही उत्कल सम्मिलनी संस्था में भागीदारी शुरू कर दी थी। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य उड़ीसा के सभी उड़िया भाषी लोगों को एकजुट कर एक राज्य के रूप में संगठित करना था। उन्होंने इसे स्वतंत्रता संग्राम की अग्रणी संस्था बना दिया। वह पक्के गांधीवादी भी थे और उड़िया गौरव के साथ-साथ भारतीय राष्ट्रवाद को भी समर्पित थे। उन्होंने इसकी बड़ी शुरुआत असहयोग आंदोलन में पूरा साथ लेकर कर दी थी। जब महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन की शुरुआत की, तो गोपबंधु दास ने अपनी संस्था को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में मिला दिया। उनके इस कदम ने ओडिशा के स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा दी।
वे ओडिशा में असहयोग आंदोलन के नेतृत्वकर्ता बने और 1921 में उन्होंने इस आंदोलन की अगुवाई की। 1922 में आंदोलन के स्थगन के बाद उन्हें गिरफ्तार किया गया और दो वर्षों तक हजारीबाग जेल में रखा गया। जेल से रिहा होने के बाद भी वे निरंतर कांग्रेस के रचनात्मक कार्यक्रमों को फैलाने के कार्य में जुटे रहे। ओडिशा के उत्थान को लेकर भी भी वह लगातार सक्रिय थे। इसलिए, 1920 की नागपुर कांग्रेस में उनके प्रस्ताव पर भाषावार प्रांतों की नीति को स्वीकार किया गया। इस दौरान वह 1920 से 1928 तक उड़ीसा कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी रहे।
गोपबंधु दास का दृष्टिकोण केवल राजनीतिक ही नहीं था, वे समाज सुधार और शिक्षा को भी भारतीय स्वतंत्रता के लिए अनिवार्य मानते थे। 1909 में उन्होंने पुरी के पास सत्यबादी बकुल बाना विद्यालय की स्थापना की थी। यह गुरुकुल परंपरा पर आधारित विद्यालय था। यहां सभी जातियों और पृष्ठभूमि के बच्चे एक साथ बैठकर भोजन करते और शिक्षा प्राप्त करते थे। यह उस समय के जातिवादी समाज के लिए एक बड़ी सामाजिक क्रांति थी।
स्वतंत्रता संग्राम के साथ-साथ गोपबंधु दास ने समाज में व्याप्त अस्पृश्यता और जातिगत भेदभाव के खिलाफ भी लड़ाई लड़ी। उन्होंने पुरी में विधवा पुनर्वास केंद्र की स्थापना की और अस्पृश्यता के खिलाफ अभियान छेड़ा। उनका उद्देश्य समाज के हर तबके को एकजुट करना और उन्हें शिक्षा, सामाजिक समानता और स्वतंत्रता के महत्व से परिचित कराना था।
गोपबंधु दास एक कुशल लेखक और साहित्यकार भी थे। उनकी रचनाएं न केवल समाज और राष्ट्र के प्रति उनके विचारों को व्यक्त करती हैं, बल्कि उनका साहित्य ओडिशा और भारतीय राष्ट्रीयता की भावना को भी प्रदर्शित करता है। उनकी कुछ प्रमुख रचनाएं बन्दीर आत्मकथा, अवकाश चिन्ता, कारा कविता, नचिकेता उपाख्यान, और धर्मपद थीं। इन रचनाओं के माध्यम से उन्होंने देशभक्ति और विश्व कल्याण की प्रेरणा दी।
गोपबंधु दास का पूरा जीवन समाज सेवा, स्वतंत्रता संग्राम और साहित्य को समर्पित था। 17 जून 1928 को मात्र 51 वर्ष की आयु में उन्होंने अंतिम सांस ली। वह ओडिशा के ऐसे महानायक थे जिन्हें सिर्फ ओडिशा तक सीमित करना न्यायसंगत नहीं होगा। उन्होंने लिखा था,मैं भारत में जहां भी रहूं, वह मेरा घर ही होगा।
--आईएएनएस
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